भारत में समानता!? : मोदी सरकार के दावे का सच

अनुवाद : संजय पराते
मोदी सरकार के प्रेस सूचना ब्यूरो ने 5 जुलाई 2025 को एक बयान जारी कर विश्व बैंक के आंकड़ों का हवाला देते हुए दावा किया कि भारत अब दुनिया का चौथा सबसे अधिक समानता वाला देश बन गया है। इस बयान ने कॉर्पोरेट मीडिया में सरकार की नीतियों की प्रशंसा और जश्न का उन्माद पैदा कर दिया है। यह अजीब है कि अत्यधिक असमानता वाले देश में, जहाँ गरीबी और अभाव में जीने वाले लाखों लोगों के बीच अरबपति फल-फूल रहे हैं, सरकार और उसके समर्थक ऐसे दावों से लोगों और पूरी दुनिया को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं। दरअसल, इस सच्चाई को छिपाना अपराध है, क्योंकि इसका मतलब है कि मौजूदा असमानता, जो ब्रिटिश राज के दौर से भी आगे निकल गई है, को खत्म करने या कम करने के लिए अब कुछ नहीं किया जाएगा।
सरकार के इन दावों का आधार क्या है? आइए देखें कि यह धोखा कैसे फैलाया गया है।
*lगिनी सूचकांक : उपभोग व्यय बनाम आय
विश्व बैंक समय-समय पर विभिन्न विकास संकेतकों पर आँकड़े प्रकाशित करता है, जिनमें असमानता का एक मापक, जिसे गिनी सूचकांक कहा जाता है, शामिल होता है। यह सूचकांक 0 (पूर्ण समानता) और 100 (पूर्ण असमानता) के बीच होता है। इस सूचकांक की गणना का आधार देश में आय का वितरण है — यानी, जनसंख्या का कितना हिस्सा कुल आय का कितना हिस्सा अर्जित करता है। इसलिए, गिनी सूचकांक के माध्यम से असमानता को मापने के लिए आय के आँकड़े आवश्यक हैं।
पश्चिम के अधिकांश उन्नत देशों में, आय के आँकड़े सीधे जनसंख्या के नमूनों के सर्वेक्षणों से एकत्र किए जाते हैं। लेकिन भारत जैसे अधिकांश विकासशील देशों में, आय सर्वेक्षण नहीं होते हैं। बहुत पहले, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (तब इसे एनएसएसओ कहा जाता था) ने यह निर्णय लिया था कि मुख्यतः कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में घरेलू आय का निर्धारण करना कठिन है। इसलिए, उन्होंने उपभोग व्यय पर आँकड़े एकत्र करने का एक तरीका अपनाया। समय-समय पर, नमूना सर्वेक्षण किए जाते थे, ताकि यह पता लगाया जा सके कि परिवार हर महीने कितना खर्च (उपभोग व्यय) करते हैं। इसका उपयोग प्रातिनिधिक आय के विकल्प के रूप में किया जाता है।
यह कम आय वाले परिवारों के लिए कारगर है, क्योंकि उनकी अधिकांश आय खर्च हो जाती है और बचत लगभग नहीं के बराबर होती है। इसलिए, कमाई और खर्च के बीच का संबंध काफी हद तक सही है। हालाँकि, आबादी के अमीर तबके में, आय का केवल एक छोटा-सा हिस्सा ही खर्च होता है। बाकी पैसा जमा कर लिया जाता है। अगर सर्वेक्षण में केवल घरेलू उपभोग व्यय के बारे में पूछा जाए, तो इससे अमीरों की आय का कम आकलन होता है।
असमानता पर विश्व बैंक के आँकड़े आय सर्वेक्षणों और उपभोग सर्वेक्षणों के बीच अंतर नहीं करते हैं, हालाँकि वे अपनी प्रस्तुति में इनके प्रकार का उल्लेख जरूर करते हैं।
मोदी सरकार द्वारा उद्धृत विश्व बैंक के हालिया आँकड़ों में विभिन्न देशों की सूची उनके संबंधित गिनी सूचकांकों के साथ दी गई है। यह दर्शाता है कि 2022 में भारत का गिनी सूचकांक 25.5 है। यह राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ, पूर्व एनएसएसओ का नया नाम) द्वारा किए गए 2022-23 के घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण पर आधारित है।
अप्रैल 2025 में, विश्व बैंक ने एक ‘गरीबी और समता : संक्षिप्त विवरण’ जारी किया है, जिसमें इन आंकड़ों का उल्लेख किया गया है और स्पष्ट किया गया है कि ये उपभोग आधारित हैं। इसने इसकी तुलना अन्य देशों से नहीं की, क्योंकि उनमें से कई देशों के पास आय सर्वेक्षण आधारित आंकड़े होंगे और दोनों की तुलना नहीं की जा सकती। वास्तव में, विश्व बैंक ने गिनी सूचकांक के बारे में अपनी व्याख्या में स्पष्ट रूप से निम्नलिखित कहा है :
“चूँकि अंतर्निहित घरेलू सर्वेक्षणों में एकत्रित कल्याणकारी उपायों के तरीकों और प्रकारों में भिन्नता होती है, इसलिए आँकड़े विभिन्न देशों में या किसी देश के भीतर विभिन्न वर्षों में भी कड़ाई से तुलनीय नहीं होते हैं। विशेष रूप से आय के वितरण के लिए गैर-तुलनीयता के दो स्रोतों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। पहला, सर्वेक्षण कई मामलों में भिन्न हो सकते हैं, जिसमें यह भी शामिल है कि वे जीवन स्तर के सूचक के रूप में आय का उपयोग करते हैं या उपभोग व्यय का। आय का वितरण आमतौर पर उपभोग के वितरण की तुलना में अधिक असमान होता है। इसके अतिरिक्त, सर्वेक्षणों में प्रयुक्त आय की परिभाषाएँ भी प्रायः भिन्न होती हैं। उपभोग आमतौर पर एक बेहतर कल्याणकारी सूचक होता है, विशेष रूप से विकासशील देशों में। दूसरा, घरों का आकार (सदस्यों की संख्या) और सदस्यों के बीच आय के बँटवारे की सीमा भिन्न होती है, क्योंकि व्यक्ति, आयु और उपभोग आवश्यकताओं में भिन्नता होती हैं। इन मामलों में देशों के बीच का अंतर वितरण की तुलना में पूर्वाग्रही हो सकता है। विश्व बैंक के कर्मचारियों ने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि आँकड़े यथासंभव तुलनीय हों।”
गिनी इंडेक्स की 2022 की डेटा श्रृंखला में भारत सहित केवल 61 देश शामिल हैं। इनमें से लगभग आधे देशों ने आय सर्वेक्षण किए हैं जबकि बाकी देशों ने उपभोग सर्वेक्षण किए हैं। चीन का डेटा उपभोग सर्वेक्षण पर आधारित है, लेकिन ब्राज़ील का डेटा आय-आधारित है। ज़्यादातर यूरोपीय देशों और अमेरिका के पास आय-आधारित डेटा है। 2011 में, जब भारत का गिनी इंडेक्स 28.8 आंका गया था, तब इस सूची में 82 देश शामिल थे। ये भी आय और उपभोग-आधारित डेटा का मिला-जुला समूह थे।
इस स्पष्ट सावधानी के बावजूद, जो गंभीर अर्थशास्त्रियों को भी अच्छी तरह पता है, मोदी सरकार ने बेशर्मी से अन्य देशों के साथ तुलना करके भारत को चौथा सबसे बड़ा समतावादी देश घोषित कर दिया है! यह और भी चौंकाने वाला है, क्योंकि वास्तव में 2022 की गिनी सूचकांक सूची में केवल 61 देश हैं, और अन्य देशों के पास संभवतः उस वर्ष का प्रासंगिक डेटा नहीं है।
*उपभोग के आँकड़े अमीर तबकों को कम आँकते हैं*
उपभोग-आधारित आँकड़ों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि समाज का अमीर वर्ग – अरबपति और करोड़पति – सर्वेक्षण से वंचित रह जाते हैं। वे आबादी का एक छोटा-सा हिस्सा हैं और आमतौर पर घरेलू सर्वेक्षणों में कभी शामिल नहीं होते। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई एनएसओ सर्वेक्षक मुंबई के एंटिला में मुकेश और नीता अंबानी से उनके मासिक खर्चों का पता लगाने के लिए उनके पास जाएगा? यह समस्या वैश्विक है, सिर्फ़ भारत तक सीमित नहीं है।
इसका नतीजा यह होता है कि अमीर परिवारों के उपभोग व्यय को ध्यान में नहीं रखा जाता और इस तरह उनके उपभोग के स्तर को बहुत कम करके आंका जाता है। भारत जैसे देशों में, जहाँ अधिकतम आय और संपत्ति आबादी के शीर्ष 1% लोगों में केंद्रित है, इसका मतलब है कि बाकी लोगों के उपभोग के स्तर में ज़्यादा अंतर नहीं है। इससे ज़्यादा ‘समानता’ का भ्रम पैदा होता है, जैसा कि कम गिनी सूचकांक में परिलक्षित होता है।
क्या इसका मतलब यह है कि अमीर लोगों के उपभोग, बल्कि उनकी आय, का अंदाज़ा लगाने का कोई तरीका नहीं है? नहीं, गंभीर अर्थशास्त्री और नीति-निर्माता जानते हैं कि इस कमी को काफी हद तक कैसे दूर किया जा सकता है। यह इस आलेख के अगले भाग में स्पष्ट हो जाएगा, जहाँ हम भारत में असमानता की वास्तविक स्थिति पर चर्चा करेंगे।
*भारत में वास्तविक असमानता को कैसे मापा जाएं?*
विश्व असमानता प्रयोगशाला के अर्थशास्त्रियों ने दर्शाया है कि भारत में आय और संपत्ति की असमानता अपने सर्वकालिक उच्च स्तर पर है, और मोदी शासन में इसमें और तेज़ी देखी गई है। पिछले साल प्रकाशित एक शोधपत्र में, उन्होंने निम्नलिखित आँकड़े दिए हैं :
*”कुल आय में से, सबसे गरीब 50% आबादी को केवल 15% मिलता है, जबकि सबसे अमीर 10% आबादी 57.7% हड़प लेती है। देश की लगभग एक-चौथाई आय केवल शीर्ष 1% आबादी के पास है।”*
इससे यह स्पष्ट है कि सबसे अमीर और सबसे गरीब लोगों के बीच आय में भारी अंतर है। यह बात वयस्क आबादी के प्रत्येक वर्ग की औसत वार्षिक आय पर नज़र डालने पर और भी स्पष्ट हो जाती है :
*”भारत की शीर्ष 1% आबादी निचले 50% आबादी से 75 गुना ज़्यादा कमाती है। दरअसल, सबसे अमीर 0.001% आबादी सबसे गरीब 50% आबादी से 2800 गुना ज़्यादा कमाती है।”*
अर्थशास्त्री इन चौंकाने वाले आँकड़ों पर कैसे पहुँचे हैं? उन्होंने राष्ट्रीय लेखा आँकड़ों, आयकर के सारणीबद्ध आँकड़ों और आय व उपभोग पर विभिन्न एनएसओ/एनएसएसओ सर्वेक्षणों का उपयोग किया है। एनएसओ के घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षणों में अमीर वर्गों के छूटे हुए आंकड़ों की भरपाई के लिए, उन्होंने समाज के उच्च वर्ग की आय को दर्शाने के लिए आयकर आँकड़ों का उपयोग किया। उनकी कार्यप्रणाली पारदर्शी है और ऊपर दिए गए शोध पत्र में विस्तार से दी गई है। हालाँकि ये आँकड़े पूर्णतः सही नहीं हैं, लेकिन सरकार जो प्रचारित करने की कोशिश कर रही है, उससे कहीं अधिक वास्तविकता के करीब हैं।
इसी शोधपत्र में लेखकों द्वारा धन असमानता की गणना के लिए एक समान कवायद की गई है। ध्यान दें कि धन एक संचयी आँकड़ा है, जबकि आय वह है, जो एक सीमित अवधि में अर्जित होती है। इसलिए, इसकी उत्पत्ति और इसके पोषण दोनों में अंतर है।
भारत में सबसे गरीब 50% लोगों के पास कुल संपत्ति का मात्र 6.4% है, जबकि सबसे अमीर 10% लोगों के पास 60% का चौंका देने वाला हिस्सा है। आय के मामले में, लेखकों ने प्रत्येक खंड के लिए औसत संपत्ति अनुमान प्रदान किए हैं :
*”भारत में सबसे गरीब 50% लोगों के पास औसतन लगभग 1.7 लाख रुपये की संपत्ति है। सबसे अमीर 10% लोगों के पास लगभग 88 लाख रुपये की संपत्ति है और सबसे अमीर 0.001% लोगों के पास औसतन 2261 करोड़ रुपये हैं, जो कि सबसे गरीब 50% लोगों की संपत्ति से 1.3 लाख गुना अधिक है।”*
ये आँकड़े राष्ट्रीय संपत्ति समुच्चय, एनएसओ के अखिल भारतीय ऋण एवं निवेश सर्वेक्षण (एआईडीआईएस) और फोर्ब्स अरबपति रैंकिंग का उपयोग करके अनुमानित किए गए हैं। उपरोक्त संक्षिप्त विवरण से यह स्पष्ट है कि भारत में असमानता व्यापक और गहरी है।
*कुछ अन्य देशों के साथ तुलना*
चूँकि सर्वेक्षण में समान कार्यप्रणाली लागू की गई है और अंतरों को समायोजित किया गया है, इसलिए भारत की असमानता की तुलना अन्य देशों से करना संभव है। इसके लिए, लेखक कुछ अन्य देशों के आँकड़ों के लिए विश्व असमानता डेटाबेस का उपयोग करते हैं।
आय असमानता के मामले में, दक्षिण अफ्रीका के बाद भारत दूसरे नंबर पर है। दक्षिण अफ्रीका में शीर्ष 10% आबादी राष्ट्रीय आय का 65% से अधिक हिस्सा हड़प लेती है, जो अत्यधिक असमानता को दर्शाता है। भारत में, यह हिस्सा लगभग 58% है। यदि आय में शीर्ष 1% की हिस्सेदारी पर नज़र डालें, तो दक्षिण अफ्रीका से भी आगे भारत दिखता है। *भारत में राष्ट्रीय आय का लगभग 23% हिस्सा सबसे अमीर 1% लोगों को मिलता है।* ये उस बेशर्म और भयावह असमानता के स्पष्ट संकेत हैं, जिसे सरकार छिपाने की कोशिश करती दिख रही है।
धन के संकेंद्रण के मामले में, दक्षिण अफ्रीका में सबसे ज़्यादा लगभग 86% धन का संकेंद्रण केवल 10% लोगों के हाथ में है। उसके बाद ब्राज़ील, अमेरिका और चीन और फिर भारत का स्थान है। *भारत में शीर्ष 10% लोगों के पास 65% धन संकेंद्रित है।*
इस प्रकार, मोदी सरकार का चौथा सबसे आर्थिक समानतावादी देश होने का दावा पूरी तरह से ग़लत है। यह विश्वास करना मुश्किल है कि सरकारी प्रचार तंत्र चलाने वाले सभी चतुर लोग इतने भोले या मूर्ख हैं कि वे 61 देशों की सूची लेकर उसे ‘विश्व’ कहने और गिनी सूचकांकों से तुलना करने की गलती करते हैं, जबकि उन्हें स्पष्ट चेतावनी दी गई है कि ऐसा नहीं किया जा सकता। इसलिए, अपरिहार्य निष्कर्ष यह है कि मोदी सरकार को सच्चाई या वैधता की परवाह नहीं है — उसे लगता है कि वह दिन को रात कह सकती है और बचकर निकल सकती है। यह वास्तविकता से पूरी तरह से अलगाव का लक्षण है और देश की जनता का अपमान भी ह