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आसिफी इमामबाड़ा (बड़ा इमामबाड़ा)

लखनऊ की ऐतिहासिक इमारतें सिरीज - चौथी किस्त

के . सरन

अगर आगरा की पहचान दुनियाभर में ताज महल से है तो लखनऊ,नवाबी जमाने में बनी, अनेक ऐतिहासिक इमारतों और यहां की गंगा-जमुनी तहजीब के कारण दुनियाभर में पहचाना जाता है।

लखनऊ में ऐतिहासिक महत्व की यूं तो अनेक इमारतें
अनेक नवाबों द्वारा अपने -अपने शासनकाल में बनवाई गईं थीं पर सबसे पहले अवध के चौथे नवाब आसफुद्दौला, जब अवध की राजधानी फैजाबाद से 1775 में लखनऊ लाए थे तो उन्होंने अपने रहने के लिए हुसैनाबाद में नदी किनारे का इलाका चुना था और आसफी कोठी के नाम से अपना दौलत खाना बनवाया था।इसके साथ शीशमहल आदि अनेक इमारतों से इस इलाके को रोशन किया था।


सन् 1784 में रूमी दरवाजे के साथ ही आसफी इमाम बाड़े का निर्माण कार्य भी शुरू कराया था। 1784 में लखनऊ में भयंकर अकाल पड़ा तो लगभग 22000 लोगों को इन इमारतों के निर्माण कार्य से जीविका मिली और उनका जीवन यापन हो सका। कहा जाता है कि उस जमाने में जब एक रूपये का तीस सेर गेहूं मिलता था तब इस इमामबाड़े और रूमी दरवाजे के निर्माण पर एक करोड़ से अधिक धन खर्च किया गया था।
यह इमामबाड़ा आसफुद्दौला ने मरहूम हुसैनअली की शहादत की याद में बनाया था । किले जैसी यह इमारत लगभग छ: बरस में बनकर तैयार हुई थी जो नवाबी काल की सबसे बेहतरीन और शानदार इमारत के रूप में दुनियाभर में जानी जाती है।
आसफुद्दौला का ख्वाब था कि इस जैसी दूसरी इमारत दुनियां में न हो। वाकई हुआ भी ऐसा ।यह वास्तुकला की लाजवाब मिसाल है और इसमें मुगल और राजपूत स्थापत्य का खूबसूरत मेल-मिलाप देखने को मिलता है।
इस विशाल और बेमिसाल इमारत के वास्तुकार (डिजाइनर) किफायत उल्ला शाहजहानाबादी थे।
#अवध_इतिहास_विद्_आ०_पद्मश्री_डा०योगेशप्रवीन #के_शब्दों_में “#इस_इमारत_का_भीतरी_विस्तार_अपने #आप_में_अजूबा_है_अन्दर_से_इस_एक_आयताकार #भवन_में_उस_जमाने_की_इमारती_कला_के_वो_वो #कमाल_के_करतब_दिखाये_गये_हैं_कि_यह_इमारत #आज_भी_दुनियाभर_में_एक_अजूबा_बनी_हुई_है”।इसमें संसार का वह सबसे बड़ा हाल है जिसमें न खम्भे हैं न लोहा न लकड़ी का इस्तेमाल किया गया है।163 फुट लम्बे 53फुट चौड़े और 56 फुट ऊंचे इस हाॅल की छत कमानदार डाटों से बनी है और इन्ही डाटों के सहारे इसकी छत को रोका गया है।
इस छत के ऊपर बनी #भूल_भुलैया में 489 दरवाजे एक जैसे बने हुए हैं।इन दरवाजों से न केवल इमारत के अन्दरूनी भाग को पर्याप्त हवा और रोशनी मिलती है बल्कि छत के वजन को रोकने का काम भी यह दरवाजे करते हैं। छत के ऊपर तक जाने के लिए 84 सीढ़ियां हैं।
बीच वाले हाल में आसफुद्दौला का मजार है ।इस हाल के दोनों तरफ दो गोल कमरे हैं जिनमें से एक सूरजमुखी कमरा कहा जाता है दूसरा खरबूजे वाला कमरा कहा जाता है।इसके आगे पीछे 180 फुट लम्बे और 60फिट चौड़ाई के बरामदे हैं।
इमाम बाड़े में सामने की ओर एक के बाद एक जीने बने हैं जो सहन का काम करते हैं।
इस इमारत की सबसे बड़ी विशेषता इमारत के बाहर की ओर बने झरोखे हैं जिनसे सामने से हवा भीतर आती है। साथ ही इमारत के प्रवेशद्वार से घुसने वाला व्यक्ति, दूर से दिख जाता है और विशाल लाॅन को पारकरके सहन के जीने तक पहुंचने से पहले ही अगर वह शत्रु है तो इन झरोखों से ही हथियार चलाकर उसका काम तमाम किया जा सकता था। जबकि बाहर वाला व्यक्ति किसी भी हथियार से झरोखे के पीछे खड़े व्यक्ति पर हमला भी करे तो उसका वार झरोखे के पीछे खड़े व्यक्ति को छू तक नहीं सकता था।
भूल-भुलेया की दिवारें इस तकनीक की बनी हैं कि दिवार के एकओर मुंह लगाकर कोई बोले तो उसकी आवाज
दिवार के दूसरी ओर खड़े व्यक्ति को दिवार मे कान लगाकर सुनने पर सुनाई देती है।
लखनऊ आने वाले पर्यटक चाहे देश- दुनियां के जिस कोने से आए हों उनकी जुबान पर घूमने के लिए पहली पसंद आसफी इमाम बाड़ा ही होती है।

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