”नैक—टाई” (मसखरी में कण्ठलगोट) का विरोध आज यूरोप में तेज होता जा रहा है। भारत में तो यह प्रतिरोध अत्यंत जोरदार रहा। आज ही के दिन (1 अगस्त 1920) महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सरकार से असहयोग आन्दोलन चलाया था। तब टाई खासकर गोरी सत्ता का प्रतीक हो गयी थी। उस दौर में टाई मिलाकर कुल ब्रिटिश पोशाक की होली जलती थी। खादी वाला विकल्प खूब व्यापा था।
टाई आजकल खबरों में है। पेरिस में फ्रांसीसी सांसद टाई पर बड़ी गहरायी से विभाजित हो गये हैं। राष्ट्रपति एमानुऐल माइक्रोनी ने टाई के बचाव में अब अभियान छेड़ा है। वे सदन में औपचारिक परिधान की मर्यादा संजोये रखने में प्राणपण से जुटे हैं। मगर वामपंथी, जनवादी सांसद जो बड़ी संख्या में फ्रांसीसी संसद में पहुंचे हैं, का यह मानना है कि वर्ग विषमता को टाई गहराती है। गत दो सदियों से भारत में गोरी सत्ता का प्रतीक टाई रही है। अश्वेतों पर शासन का माध्यम। बल्कि जो लंदन से पढ़कर आया, आईसीएस में उत्तीर्ण होकर, मलका बर्तानिया का अफसर बन कर भारत लौटा था, उसका रुतबा कहीं ज्यादा रहता था। मानों देवपुरुष हो।
पारम्परिक भारत में टाई यूं भी गुलामी का परिचायक रही। टोडी कहते थे उसे धारण करने वालों को। अर्थात मेंढक का बच्चा। हालांकि इन दिनों (शीतकाल में खासकर) टाई का प्रचलन फिर बढ़ गया है। आरक्षित पिछड़ी जातियों में खासकर। यह सजावटी तथा व्यवहारिक दोनों दृष्टि से अब प्रयुक्त हो रहा है।
टाई की उत्पत्ति कई सदियों पुरानी है। प्राचीन मिस्र में दफनायी गयी ”ममीज” के गले में यह बंधी रहती थी। ओशिनिया (Oceania) इलाके में अमेज़न के आदिवासी बहुत कम कपड़े पहनते थे लेकिन उनके जीवन में भी गले के वस्त्रों का विशेष स्थान था। कहा जाता है कि नेकटाई की शुरूआत यूरोप में तीस साल के युद्ध की उथल-पुथल के दौरान हुई थी। उस समय इसका उपयोग स्कार्फ (Scarves) के रूप में किया गया। इन स्कार्फ का उपयोग सम्मान के प्रतीक के रूप में केवल सैनिक ही किया करते थे। उस समय आम जनता को इसे पहनने की अनुमति नहीं थी।
बादशाह लुईस अट्ठारहवें ने क्रोएशियाई व्यापारियों को नियुक्त किया, जिन्होंने अपनी वर्दी के हिस्से के रूप में अपनी गर्दन के चारों ओर कपड़े का एक टुकड़ा पहना। बादशाह लुईस को यह काफी पसंद आया और उन्होंने सभी शाही सभाओं के लिए इसे अनिवार्य बना दिया। क्रोएशियाई सैनिकों को सम्मानित करने के लिए उन्होंने इस कपड़े के टुकड़े को “ला क्रैवेट” (La Cravate) का नाम दिया जिसे फ्रेंच में नेकटाई कहा गया। यह शैली पूरे यूरोप में 200 वर्षों तक लोकप्रिय रही।
जब रोमन सम्राट ने ट्रोजन के युद्ध में डाकियन्स (Dacians) को हराया, तो अपनी जीत का जश्न मनाने के लिए संगमरमर का एक स्तंभ बनवाया जिसमें हज़ारों सैनिकों को साहसी चरित्र के प्रतीक के रूप दर्शाने के लिये नेकटाई पहनायी गयी थी।
हर महत्वपूर्ण राजनेता अपनी स्टाइल बनाकर टाई धारण करता था। माईक्रोनी को एक अनोखा नजारा दिखा जब वे संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएन) गये थे। वे पतली टाई पहने थे। तभी टाई पहने अमेरिकी राष्ट्रपति (डोनाल्ड ट्रम्प) से सामना हुआ। ट्रम्प को लंबी टाई, बहुधा लाल और पतली पसंद थी। उनका सामना हुआ एमानुऐल से। तब तक वह यूरोप का फैशन बन गया था। बहुधा टाई की गाठों से भी फैशन का नया या पुराना होने का अहसास हो जाता था। मसलन राष्ट्रपति फ्रांकुवा होलैंन्द की टाई में कई गांठें पड़ी होती थीं। तब एक शीर्ष सम्मेलन में उनसे भेंट पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चुटकी ली : ”इस गर्मी में आप बेझिझक टाई उतार सकते हैं।” इस पर फ्रेंच राष्ट्रपति का जवाब था : ”यह टाई मेरे फ्रेंच प्रेस के लिये है।” इतना महत्व रहा है टाई का।
आज फ्रांसीसी संसद में टाई पर कलह के मूल में वर्ग—विग्रह की अवधारणा हैं। सम्पन्न और जनवादी लोगों के दरम्यान यह तीव्र संघर्ष है। गत वर्ष के आम चुनाव में माइक्रोनी ने बहुमत गवां दिया था क्योंकि सोशलिस्टों ने उन्हें घनाढ्यो का पोशाक वाला करार देकर विरोध में अभियान चलाया था।
भारत के परिवेश में टाई एक दासता—परिचायक निशान रहा। देश की जलवायु की विवशता और आम दृष्टि में टाई किसी भी दृष्टि से देसी नहीं हैं। बल्कि दो भारतीयों में आपसी विषमता सर्जाता है। याद कीजिये दक्षिण अफ्रीका में बापू जब वकील थे तो उन्होंने जेल जाने पर सादा लिबास पहना। फिर धोती भी। घुटनों तक गरीब किसानों से तादात्म्य बनाने के लिये। मगर उनके अनन्य चेले जवाहरलाल नेहरु तो आजादी के बाद तक टाई लटकाते रहे। जब भी वे राष्ट्रमंडल की सभा में लंदन जाते थे (1948 से 1962 तक) वे सदैव सूट—बूट और टाई में रहते थे। उनका चूड़ीदार पैजामा इंग्लैण्ड में अमूमन पैंट के नीचे पहनने वाला वस्त्र होता है। एक बार की घटना है कि केंब्रिज में नेहरु अपने पुराने छात्रों की सभा में गये तो भारतीय पोशाक (अचकन—चूड़ीदार) में गये थे। वहां एक बुजुर्ग महिला बेहोश हो गयी। वह समझी नेहरु पैंट पहनना भूल कर, नंगे आ गये हैं।
मैंने अपने सीनियर पत्रकारों से किस्सा सुना कि ”टाइम्स आफ इंडिया” में ब्रिटिश राज हर पत्रकार के लिये में टाई अनिवार्य थी। गेट पर ही रोक दिया जाता था जांच हेतु। हालांकि मेरे गांधीवादी पिता (स्व.के रामा राव) जब ”टाइम्स” में चीफ सबएडिटर (1923—27) थे तो प्रवेश फाटक पर दर्बान के जांचने के बाद, डेस्क पर बैठते ही टाई मोड़कर जेब में रख लेते थे। बाद में भारतीय अखबारों में वे आये तो ऐसी साम्राज्यवादी पाबंदी नहीं रही। जेल और खादी तो उनकी जीवन—संगी बन गयी थी। इसी कारण से (टाइम्स आफ इंडिया के पूर्व संवाददाता रहे) मुझे भाषायी पत्रकारों द्वारा टाई लगाता देखकर चिढ़ होती है।
यहां मेरी समस्त अभिव्यक्ति पूरी ईमानदारीभरी ही है। इसका प्रमाण ? लखनऊ विश्वविद्यालय में मेरे पांच वर्ष के छात्र जीवन में केवल खादी पहनने और फिर छह महाद्वीपों के 51 राष्ट्रों की यात्रा बिना टाई लगाये, बिना शराब पिये कर चुका हूं। नाज होता है।