चेरिश टाइम्स न्यूज़
लखनऊ. आज के मशीनी युग में हमारे लिए प्रकृति का मतलब है जल,वायु, अग्नि जैसे उसके तत्वों का हमारे लिए उपयोग। तो क्या प्रकृति सिर्फ यही सब है? किष्किंधा कांड में श्रीराम जब सुग्रीव को राजा बनाने के बाद वन में आए तब वे विरह में डूबे हुए थे। ऐसे में तुलसीदासजी ने श्रीराम के मुंह से मनुष्य जीवन और प्रकृति पर बड़ी अद्भुत टिप्पणियां करवाई हैं। अपने कवि हृदय को जाग्रत कीजिए और फिर जुड़ें श्रीराम की भावनाओं से। अब हम इसी स्तंभ में कुछ दिन श्रीराम-लक्ष्मण की बातचीत के माध्यम से प्रकृति और जीवन-संदेश से जुड़ते चलेंगे।
श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, ‘लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि। गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत कहुं देखि।।’ हे लक्ष्मण! देखो, मोरों के झुंड बादलों को देखकर नाच रहे हैं। जैसे वैराग्य में अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णुभक्त को देखकर हर्षित होते हैं।’ ‘घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।।’ ‘दामिनि दमक रह न घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं।।’आकाश में बादल घुमड़-घुमड़कर घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीताजी) के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं,जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती।
श्रीराम कहते हैं गृहस्थ को थोड़ा वैराग्य भाव पालना चाहिए। वैराग्य का मतलब चीजों को छोड़ देना नहीं बल्कि अपनी चीजों में संतोष रखकर सदुपयोग करना है। यही सच्चा वैराग्य है। जब वैराग्य आएगा तब विरह का मतलब समझ में आएगा। सभी के जीवन में कहीं न कहीं ऐसी स्थिति आती है,जिसका नाम दुख है। दुख
को हटाने के लिए, कम करने के लिए और अधिक दुखी होने से बचने के लिए प्रकृति क्या काम आती है इस पर विचार करते चलेंगे, क्योंकि प्रकृति प्रेमी होना हमारे मनुष्य होने की आवश्यक शर्त है।
तिवारी जी के भजन गोविन्द जय जय, गोपाल जय जय राधा रामण हरी गोविन्द जय जय गाकर वहा उपस्तिथ भारत भूषण गुप्ता, अंजू गोयल, कंचन साहू, बिहारी लाल साहू, भक्ति भाव में झूमने लगे तथा ओमकार जयसवाल जी ने फलों प्रसाद वितरित किया।
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