कंगाली की कगार पर खड़े इस्लामी पाकिस्तान की जनता को अब रोज केवल दो कप चाय से ही गुजारा करना पड़ सकता है। वहां विदेशी मुदा की हालत बड़ी नाजुक है। उसके पास पर्याप्त परिमाण में स्वर्ण भी नहीं है ताकि भारत की भांति बेचकर स्थिति बचा सकें। याद कीजिये 1991 जब सात—माह तक ही पदासीन रह प्रधानमंत्री ठाकुर चन्दशेखर सिंह के वित्त मंत्री यशवन्त सिन्हा, बिहारवाले, ने लन्दन की गलियों में स्वदेश का सोना बेचा था। पाकिस्तान को भी दिवाला निकालने से बचाने के लिये, इस इस्लामी राष्ट्र के गृह और योजना मंत्री अहसान इकबाल चौधरी ने कल (15 जून 2022) एक अपील जारी की कि : ”केवल दो कप चाय ही पियें।” इससे अरबों डालर की चाय पत्ती आयात से बचेंगे। इस पर आम पाकिस्तानी बगावत की मुद्रा में आ गया है। हालांकि पाकिस्तानी मुस्लिम लीग (नवाज) के इस प्रधान सचिव का मजाक उड़ रहा हैं। चाय तो आम आदमी का प्रिय पेय है। यदि उससे भी वह महरुम कर दिया गया तो खूनी इन्कलाब का खतरा होगा।
इस घटना से अधुना दक्षिण—पूर्वी एशियाई राष्ट्रों में चाय पर चर्चा चल पड़ी है। खासकर भारत में जहां चायवाला सत्ता के शिखर पर बैठा है। मोदीजी भाग्यवान है कि देश चाय का उत्पाद प्रचुर है। अत: भारत में ऐसी कमी कभी भी नहीं होगी। अर्थात दिल्ली के सत्ता के गलियारों में चाय की प्याली में तूफान कभी भी नहीं आयेगा। राजनीति के गणित में चाय के बागान असम राज्य के चुनाव पर गहरा प्रभाव डालते है। वहां मतदान में अली और कुली का वोट वारान्यारा कर डालता है। अली वे हैं जो बांग्लादेशी मुसलमान अब बस गये है। कुली हिन्दी पट्टी के ग्रामीण है जो यहां बागानों में मजदूरी करते हैं। पूर्वी भारत में तो चाय का उल्लेख कई फिल्मों तथा साहित्यों में है। शरदचन्द्र चटोपाध्याय द्वारा रचित परिणीता में ललिता चाय छोड़ देती है क्योंकि उसके स्वाधीनता सेनानी प्रेमी शेखर के लिये चाय बागान के श्रमिकों का ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा शोषण नागवार है। प्रेम में उत्सर्ग का नायाब नमूना है। बांग्ला फिल्म ”चोखेरबाली” में (रवीन्द्रनाथ ठाकुर) विधवा नायिका की दृष्टि में चाय पीना विधवाओं के लिये पाप है।
पड़ोसी की भांति भारत में चाय की कमी का खतरा कभी नहीं आयेगा। मगर 1942 में यदि महात्मा गांधी की चलती तो चाय का उत्पादन और खपत घटता जाता। अपनी मशहूर किताब ”आरोग्य की कुंजी” में बापू ने लिखा था : ”चाय की मानव शरीर को आवश्यकता नहीं है। उसमें कोई भी गुण जानने में नहीं आया है। मगर उसमें एक भारी दोष रहा हैं अर्थात उसमें टेनीन होती है। टेनीन ऐसी चीज है कि जो चमड़ी को सख्त करने के काम में आती है। यही काम टेनीन वाली चाय अमाशय में जाकर करती है। अमाशय के भीरत टेनीन की तह चढ़ने से, उसकी पाचनशक्ति कम होती है। जिससे अपच उत्पन्न होता है।” खुशकिस्मती है कि पाकिस्तान जैसी आफत भारत पर कभी नहीं आ सकती जबतक बंगाल, असम और नीलगिरी के चाय बागान हरे रहेंगे। यूं भी देश की हर सड़क के नुक्कड पर ढाबे आबाद है। भले ही तिब्बत में चाय की खेती न होती हो पर भारत—तिब्बत सीमा पर आखिरी गांव है ”माना” जहां एक चाय की दुकान चल रही है। बद्रीनाथ तीर्थयात्री बस तीन किलोमीटर चलकर वहां चाय की चुस्की ले सकते हैं।
तनिक चाय की खोज पर गौर करे। अंग्रेजों द्वारा 1826 में चाय की खेती देश में शुरु करने से सदियों पूर्व प्राचीन भारत में इसकी पत्तियां उबाल कर पी जाती रही। मगर ब्रिटिश राज में चीन के चायवाले बाजार को काटने के लिये भारत में चाय की खेती शुरु की। इसके पूर्व अंग्रेजों ने नीमच तथा बाराबंकी के अफीम को उपनिवेश हांगकांग में बेचकर पूरे चीन को नशेड़ी बना दिया था।
चाय की उत्पत्ति की कथा रुचिकर है। चीन के सम्राट शेन नुंग ईसा पूर्व 2737 में औषधि की तरह उबला पानी पीता था। एकदा उसमें कुछ पत्तियां गिरी पड़ी थीं। स्वाद जायकेदार बन गया था। बस तभी से चाय जन्मी। चीन में सब्ज (ग्रीन) चाय बड़ी पसन्दीदा है। अपने पांच बार की चीन यात्रा पर मैंने हर बार कोशिश की कि हरी चाय न पिऊं। बिल्कुल स्वादहीन होती है। कमख्त चीनी मेजबान पूरा थर्मस रख देते थे। अंतत: अगली यात्रा पर मैं दूध का पाउडर और शुगरफ्री लेकर गया। चीन में दूध मिलता ही नहीं। गाय, बकरी सभी मारकर खा गये।
उस वक्त मेरी दशा लंदन के उस पत्रकार जैसी थी जिसने एक रेस्त्रां में बियरर को डांटा कि : ”यदि यह चाय है तो काफी लाओ। यदि काफी है तो चाय लाओ।” (पत्रिका ”दि पंच”, 1902 की अंक संख्या 123 पृष्ठ 44)। सवा सौ साल पुराना यह कार्टून आज भी कितना मौजू है!!