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अंग्रेज़ गए ! अंग्रेजी कब ?

के. विक्रम राव
आज विश्व अंग्रेजी दिवस है। संयुक्त राष्ट्र संघ के कैलेंडर के अनुसार। इस साम्राज्यवादी भाषा से लाभ कितने हुए ? इस पर तो गत सदियों में ग्रंथ असंख्य लिखे गए। मगर भारतीय भाषाओं के माध्यम से राष्ट्र का विकास कितना हुआ ? इस पर बहस तो अनंत होंगी। बार-बार होंगी। मैं इस पैमाने, इस मापदंड को कुछ अलग तरीके से देखना चाहूंगा। सोवियत रूस, फ्रांस, जर्मनी, और वैसे ही अन्य राष्ट्र जिनका साबका इस ब्रिटिश माध्यम से नहीं पड़ा, उन सबने अपनी राष्ट्रभाषा के बलबूते चहुमुखी तरक्की कर ली थी। मेरा आग्रह है कि स्वभाषा को उतकुंठित कर देने से क्या हानि हुई।

मेरी मान्यता है कि राममनोहर लोहिया के “अंग्रेजी हटाओ” संघर्ष ने देश के विकास के दबे, कुचले और कमजोर वर्गों को लाभ पहुंचाया। वर्ना इस्लामिक मुल्कों की भांति भारत भी आर्थिक और औद्योगिक विकास में पिछड़ा ही रहा। एक बार लोकसभा में डॉ. लोहिया ने कहा था : “अंग्रेजी को खत्म कर दिया जाए। मैं चाहता हूं कि अंग्रेजी का सार्वजनिक प्रयोग बंद हो, लोकभाषा के बिना लोकराज्य असंभव है। कुछ भी हो अंग्रेजी हटनी ही चाहिये, उसकी जगह कौन सी भाषाएं आती है, यह प्रश्न नहीं है। इस वक्त खाली यह सवाल है, अंग्रजी खत्म हो और उसकी जगह देश की दूसरी भाषाएं आएं। हिन्दी और किसी भाषा के साथ आपके मन में जो आए सो करें, लेकिन अंग्रेजी तो हटना ही चाहिए और वह भी जल्दी। अंग्रेज गये तो अंग्रेजी चली जानी चाहिये।”


इसी परिवेश में याद कर लें कि भारत में 1950 में ही जब भारतीय संविधान लागू हुआ तब यह व्यवस्था दी गई थी कि 1965 तक सुविधा के हिसाब से अंग्रेजी का इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन उसके बाद हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया जाएगा। इससे पहले कि संवैधानिक समय सीमा पूरी होती, डॉ राममनोहर लोहिया ने 1957 में “अंग्रेजी हटाओ” मुहिम को सक्रिय आंदोलन में बदल दिया। वे पूरे भारत में इस आंदोलन का प्रचार करने लगे।
मैं स्वयं लखनऊ विश्वविद्यालय में चले “अंग्रेजी हटाओ” अभियान के हरावल दस्ते में रहा। अतः मैं पुख्ता दावा कर सकता हूं। इसका मजबूत प्रमाण है। जो लोग अंग्रेजी में कमजोर रहे, विरोध करते रहे। कई मायने में स्वार्थी कारणों से। मेरे सक्रिय विरोध का आधार सशक्त है। इसीलिए हितों का टकराव होता रहा। कुछ निजी तथ्य सर्वप्रथम पेश कर दूं। मेरी मातृभाषा तेलुगु है। संस्कृत का पठन्-पाठन किया। स्वेच्छा से। स्नातक कक्षा में अंग्रेजी मुख्य विषय था। दो वर्षों का अध्ययन था। इस तथ्य के उल्लेख का खास कारण है। इस मुद्दे पर मेरी तकरार तत्कालीन कुलपति और संस्कृत के ज्ञाता प्रो. के. ए. सुब्रमण्यम अय्यर से हुई थी। बीए की डिग्री हेतु अनिवार्य विषय जनरल इंग्लिश में उत्तीर्ण होना जरूरी था। मैं प्रथम वर्ष परीक्षा में नहीं बैठा। मेरा तर्क था कि जब मैंने अंग्रेजी को दो-वर्षीय मुख्य भाषा मानी और पढ़ी, तो फिर जनरल इंग्लिश में क्यों उत्तीर्ण होना चाहिए ? दादा उम्र में बड़ा है अथवा पोता ? मेरा तर्क था कि समाजशास्त्र, संस्कृत, समाज कार्य, राजनीति शास्त्र को मैंने एक वर्ष ही पढ़ा था।
कुलपति से मैंने तर्क किया था कि दो वर्षों में अंग्रेजी पढ़कर इतना तो निपुण हो ही गया कि जनरल इंग्लिश से कहीं ज्यादा जान लिया। मगर विश्वविद्यालय का नियम था कि डिग्री पाने हेतु सालभर का कोर्स (जनरल इंग्लिश) पढ़ना आवश्यक है, भले ही दोनों वर्षों में पढ़ी इंग्लिश अधिक ज्ञानदायिनी थी। उन्होंने नहीं माना। विवश होकर मैं दूसरे वर्ष जनरल इंग्लिश परीक्षा में बैठा और फिर अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण हुआ।
फिर मैंने सवाल उठाया था कि अंग्रेजी का ज्ञान मेरा दो साल में इतना हो गया था कि सालभर जनरल इंग्लिश का ज्ञान अनावश्यक ही रहा। उसी वर्ष हम लोगों ने लखनऊ विश्वविद्यालय में (10 मई 1957) “अंग्रेजी हटाओ” का संघर्ष चलाया। चूंकि मैंने अंग्रेजी पूरी पढ़ी थी, अतः मेरा तर्क स्वीकार करना पड़ा। लेकिन तब तक हजारों छात्रों के फेल होने के कारण डिग्री साल भर बाद मिली।
फिलहाल छात्रों को एक अरसे तक प्रतीक्षा करनी पड़ी जब जनरल इंग्लिश भी अनिवार्य नहीं रही। यूरी गागरिन पहला मानव था जो अंतरिक्ष में गया था। वह रूसी था। अंग्रेजी में शून्य। अंग्रेजी बोलने वाला आर्मस्ट्रांग (अमेरिका) कई वर्षों बाद चांद पर गया। अतः अंग्रेजी को विकास का पैमाना बनाना कमजोरों पर आधारित होगा। मेरा प्रश्न सीधा है। जब अंग्रेजी नहीं थी तब भी भारत में औषधि, विज्ञान, में आविष्कार होते रहे। इसे कौन नजरअंदाज कर सकता है। अंग्रेजी बोलनेवाले विकास के किस स्तर पर थे ? भारत ने बनाया था आर्यभट्ट तब गोरे लोग पेड़ों पर वास करते थे। कच्चा मांस खाते थे। याद कर लें जब ढाका की महीन रेशम बनी थी तो ये असम्य गोरे वल्कल वस्त्र धारण करते थे।
लौटे इस विदेशी भाषा पर। भारत की विकास गति पिछड़ गई, इन साम्राज्यवादियों के कारण। हिंदी भूभाग के संदर्भ में दक्षिणभाषी भाषाओं का संदर्भ देखें। तेलुगू, तमिल, कन्नड़, मलयालम के साथ भारत की कई भाषायें हिंदी से कहीं ज्यादा आगे हैं। क्यों अपनी भाषा छोड़ें ? जब वाल्मीकि रामायण रच रहे थे तो इन भारतीय भाषाओं में भी रामकथा लोकप्रिय हो गई थी। उन भाषाओं की उपेक्षा क्यों ?
हिंदी के पक्ष में सबसे बड़ी और अनुपम बात यह है कि वह सरलतम है। आम बोलचाल की जुबां है। जनभाषा है। भारत को स्वीकार करनी चाहिए। और अंत में एक ही मेरा तर्क है अंग्रेजी से मेरा विरोध बड़ा तार्किक है। हिन्दी भाषा के पथ में अंग्रेजी के अध्ययन को माध्यम के रूप में थोपने का विरोधी हूं। अंग्रेजी दैनिक (टाइम्स आफ इंडिया) में कार्यरत रहा, मगर हिंदी में खूब लिखा। कई भारतीय भाषाओं को पढ़ा। मैं अंग्रेजी में शिक्षित हूं। अतः विरोधी हूं। हिन्दी केवल कॉलेज तक पढ़ी मगर खूब पढ़ी। अर्थात अंग्रेजी मेरे लिए अपनी जुबां स्वभाषा नहीं है।

Cherish Times

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