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दास्तां ‘‘बिहार प्रेस बिल‘‘ के जन्म तथा निधन की !!

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    के. विक्रम राव
             आज ही के दिन (4 अगस्त 2022), ठीक चार दशक हुये, भारतीय मीडिया पर एक और सरकारी हमला हुआ था। प्रेस को क्लीव बनाने की सुनियोजित साजिश थी। बिहार विधान मंडल (परिषद भी) ने प्रेस बिल पारित कर दिया था। कांग्रेसी मुख्यमंत्री डा. जगन्नाथ मिश्र द्वारा उनके आलोचक-पत्रकारों को यह नायाब तोहफा था। इसके ठीक सात वर्षों पूर्व (25 जून 1975) इंदिरा गांधी ने भी सेंशरशिप थोप कर आपातकाल की घोषणा कर दी थी। उनके आत्मीय, जनवादी, वामपंथी प्रगतिशील सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंदर गुजराल ने पत्रकारों को ‘‘बड़ा बाबू‘‘ बना डाला था। मगर तुलना में बिहार प्रेस बिल अत्यंत चतुरायी से रचा गया था। इसके प्रावधानों के तहत यदि कोई खोंचावाला भी अखबार के टुकड़े में चना लपेट रहा हो और उसमें सरकार विरोधी खबर छपी हो तो वह फेरीवाला भी जेल भेजा जा सकता था। इतना जटिल तथा निकृष्ट! दोबारा सत्ता पर लौटने पर इंदिरा गांधी ने फिर वैसा ही प्रयोग करना चाहा। वह तब तक प्रेस से उद्विग्न और व्याकुल हो गयीं थीं। कारण ? उनकी निजता चाहनेवाली, 28-वर्षीया बहू मेनका-संजय गांधी और सांस इंदिरा गांधी के बीच ठन गयी थी। तब वरूण दुधमुहा शिशु था। समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में खूब प्रचार हो रहा था।
आक्रोशित प्रधानमंत्री ने विचार किया। तब तक बिहार सरकार का व्यापक कदाचार मीडिया फोकस में था। एक ही बाण से दोनों साधने में इंदिरा गांधी के आज्ञाकारी विधायकों ने निष्ठा दर्शायी। मगर गंगातट की घटना सेे चिंगारी देषभर में प्रदीप्त हो गयी। विवश होकर जगन्नाथ मिश्र को अपना कानून निरस्त करना पड़ा। जगन्नाथ मिश्र ने वफादारी पूरी निभायी।
मगर पटना की घटना यह केवल सीमित या वामनाकार नहीं रही। इसका रूप विकराल था। तब इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नांलिस्ट्स (आईएफडब्ल्यूजे) का राष्ट्रीय अगुवा होने के नाते मैं इस पूरे कशकमशम का क्रियाशील साक्षी रहा, खास भूमिका में भी था। हमारे संगठन (आईएफडब्ल्यूजे) के लिये बिहार मीडिया संघर्ष एक परीक्षा की बेला थी। इसके आधार में था हमारा राष्ट्रीय नेतृत्व का तबका जो वामपंथी बल्कि कम्युनिस्ट पार्टी का था। अध्यक्ष थे केरल के (मलयालमभाषी) ए. राघवन । वे आरके करंजिया के सात्ताहिक ‘‘ब्लिट्ज‘‘ के दिल्ली ब्यूरो के प्रमुख थे। कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ सदस्य रहे। बिहार बिल आने तक तो हमारे संगठन में छोटे मोटे मनभेद होते थे, मतभेद के बाद। तीव्रता बढ़ी जब वियतनाम पर अमेरिकी की बमबारी की आईएफडब्ल्यूजे ने भर्त्सना की। हमारे मुम्बई कार्यालय (टाइम्स आफ इंडिया) से हुतात्मा चौक (फ्लोरा फाउंटेन) तक हम सबने विरोध जुलूस निकाला। नारा था ‘‘हमारा नाम वियतनाम। तुम्हारा नाम वियमनाम।‘‘ और निक्सन की निंदा थी। मगर जब सोवियत रूस की लाल सेना द्वारा चेकोस्लेवाकिया, हंगरी, पोलैण्ड आदि गणराज्यों को कुचला तो आईएफडब्ल्यूजे के नेतृत्व ने साजिशभरा मौन रखा, और नजरअंदाज कर दिया। तब हमारे साथियों ने मार्क्सवादी शब्दावलि में प्रण किया कि श्रमजीवी पत्रकार संगठन में वैचारिक पवित्रीकरण करना होगा। इस प्रयास में बिहार पत्रकार संघ बड़ा मददगार रहा।
तब शुक्रवार, 20 अगस्त 1982, के दिन पटना से मुझे एक तार मिला: ‘‘बिहार पत्रकार संघर्ष समिति‘‘ के पंडित दीनानाथ झा की तरफ से। दूसरे दिन के जुलूस में शािमल होने का निमंत्रण था। तब मैं आईएफडब्ल्यूजे का पराजित अध्यक्ष था। ब्लिट्ज के श्री ए. राघव ने मुझे मात्र दो प्रतिशत वोट से हराया था। खुद राघवन ने लखनऊ फोन कर मुझे पटना जाने की बात कही। मुझे दुविधा थी। डा. जगन्नाथ मिश्र के मौसेरे भाई चन्द्रमोहन मिश्र वामपंथी दैनिक ‘‘दि पेट्रियट‘‘ के संवाददाता थे। वे हमारी बिहारी ईकाई के अध्यक्ष थे। बताया जाता है कि चन्द्रमोहन ने ही विवादास्पद बिल का मसौदा तैयार कराया था। अर्थात दो मित्र लोग मौसेरे भाई भी थे, मुहावरे के तौर पर भी!!

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