ऋत्विक घटक : सिनेमा के मौलिक चिंतक और विभाजन की त्रासदी के फिल्मकार

ऋत्विक घटक की जन्म शताब्दी पर विशेष आलेख : जवरीमल्ल पारख
*“मैं जीवन भर यह अनुसंधान करता रहा हूँ कि किस प्रकार राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्मों की परंपरा और उनके विकास के परिणामों का सार जुटाया जाये, जिससे फ़िल्म हमारे देश के बिंबों को, ध्वनियों को, पेचीदा मसलों को इस तरह अभिव्यक्ति दे कि वे सर्वग्राह्य बन जाएँ।” — ऋत्विक घटक*
ऋत्विक घटक का जन्म 4 नवंबर 1925 को अविभाजित भारत के बंगाल के ढाका शहर में सौ साल पहले हुआ था। 2025 उनका जन्म शताब्दी वर्ष है। 06 फरवरी 1976 को सिर्फ 50 वर्ष की आयु में उनका कोलकाता शहर में देहावसान हो गया था। वे अभिनेता, पटकथाकार और निर्देशक भी थे। रंगमंच और सिनेमा, दोनों में वे सक्रिय रहे। उन्होंने अपने 25 वर्ष की सक्रियता में केवल 8 फीचर फिल्में बनायीं, जिनकी पटकथा उन्होंने लिखी थी और निर्देशन भी किया था। उनके अलावा उन्होंने सात बांग्ला और हिन्दी फ़िल्मों की पटकथाएं भी लिखीं। पहली फ़िल्म ‘नागरिक’ थी जो 1952 में बनी थी, लेकिन जो उनकी मृत्यु के एक साल बाद 1977 में रिलीज हुई थी। उन्होंने छः फ़िल्मों में अभिनय भी किया था, जिनमें से तीन ‘सुवर्णलेखा’, ‘तिताश एकति नदीर नाम’ और ‘जुकती तक्को आर गप्पो’ उनके निर्देशन में बनी बांग्ला फिल्में हैं और दो हिन्दी फिल्में ‘मुसाफिर’ और ‘मधुमती’ है। ‘मुसाफिर’ का निर्देशन ऋषिकेश मुखर्जी ने किया था और ‘मधुमती’ का बिमल रॉय ने। ऋत्विक घटक ने 13 लघु फिल्में और वृतचित्र भी बनाये थे। उस्ताद अलाउद्दीन खान और लेनिन पर बने वृतचित्र विशेष उल्लेखनीय हैं। इन सबको मिलाकर देखें, तो ऋत्विक घटक ने काफी काम किया था। उन्होंने थोड़े समय के लिए फ़िल्म एण्ड टेलिविज़न संस्थान में अध्यापक के रूप में भी काम किया था।
ऋत्विक घटक पर मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव था। वे भारतीय जन नाट्य मंच (इप्टा) से जुड़े रहे और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से भी। उन्होंने, कम्युनिस्ट पार्टी की सांस्कृतिक नीति क्या होनी चाहिए, इस पर 1955 में एक दस्तावेज तैयार किया था और उसपर गहन विचार-विमर्श के लिए पार्टी को सौंपा भी था। लेकिन अफसोस यह कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर में वह कागजों के नीचे दबा रह गया। 38 साल बाद वह दस्तावेज कागजों के बीच में से पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को प्राप्त हुआ और उसे ‘ऋत्विक घटक स्मृति न्यास’ ने प्रकाशित किया। इस दस्तावेज पर टिप्पणी करते हुए कवि, कथाकार और फ़िल्म समीक्षक विनोद दास ने लिखा है, “सांस्कृतिक नीति और नाट्य कर्म से संबंधित ऐसा सुव्यवस्थित, सुविचारित और सुचिन्तित दस्तावेज ऋत्विक घटक से पहले शायद ही किसी ने हमारे यहाँ तैयार किया हो” (भारतीय सिनेमा का अंतःकरण, पृष्ठ 39)। विनोद दास के शब्दों में, “ऋत्विक घटक भारतीय सिनेमा के उन इने-गिने फ़िल्मकारों में हैं, जिन्होंने अपनी फ़िल्मों में नए सौन्दर्य और जीवन-मूल्यों को परिभाषित करने की कोशिश की है। भारतीय सिनेमा को एक गंभीर किस्म की शास्त्रीयता, गरिमा और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाने के लिए जिस तरह सत्यजित का योगदान अविस्मरणीय है, उसी प्रकार ऋत्विक घटक को नए फ़िल्म-मूल्यों और विचार-दृष्टि के लिए विस्मृत करना कठिन है। दरअसल ऋत्विक घटक पहले सचेत, जागरूक, राजनीतिक दृष्टि सम्पन्न भारतीय फिल्मकार हैं”, (वही, पृष्ठ 35)।
*फ़िल्म और कला चिंतक*
आज से 44 साल पहले 1981 में प्रसिद्ध नाट्यकर्मी और ऐक्टिविस्ट सफ़दर हाशमी ने ऋत्विक घटक की फ़िल्मों का पुनरावलोकन का आयोजन किया था, उस अवसर पर एक छोटी पुस्तिका ‘ऋत्विक घटक : रेट्रस्पेक्टिव’ के नाम से भी प्रकाशित की गई थी, जिसमें ऋत्विक घटक के कुछ निम्बन्ध भी संकलित थे। इस पुस्तिका में दिनमान के पत्रकार और सिनेमा के गंभीर अध्येता नेत्रसिंह रावत द्वारा लिया गया साक्षात्कार और फिल्मकार कुमार शहानी का एक छोटा आलेख भी शामिल था। अंत में घटक की सभी फीचर फ़िल्मों का संक्षिप्त विवरण भी दिया गया था। ऋत्विक घटक ने सिनेमा, कला और संस्कृति पर जो भी लिखा है, उससे स्पष्ट है कि वे केवल फ़िल्मकार ही नहीं थे, फ़िल्म चिंतक या कहना चाहिए कि कला चिंतक भी थे। भारतीय काव्य परंपरा में से रस का उदाहरण लेते हुए वे कला संबंधी अपनी अवधारणा को प्रस्तुत करते हैं, जो आज भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। वे कहते हैं, “सभी कलाओं में रस भिन्न-भिन्न स्तरों पर अभिव्यक्त होता है, जो दर्शक या ग्रहणकर्ता की अनुभूति पर निर्भर करता है। मनुष्य उतना ही रस अनुभव कर पाता है, जितनी उसमें उसे आत्मसात करने की क्षमता होती है।”
*ऋत्विक घटक की फ़िल्म सृजन प्रक्रिया*
नेत्रसिंह रावत को दिए साक्षात्कार में ऋत्विक घटक कहते हैं कि “फ़िल्म एक दृश्य माध्यम ही नहीं है, वह एक दृश्य-श्रव्य माध्यम है और उसमें दोनों पक्षों का समान महत्त्व है। कई और भी तत्त्व हैं। फिल्मकार की तपस्या यह होनी चाहिए कि वह किस प्रकार अलग-अलग तत्वों का मेल करवाए कि देखने वालों तक उनका संयुक्त प्रभाव पहुँच सके। आदर्श स्थिति यह होगी कि एक तत्व दूसरे पर हावी न होने पाए। देखने वालों को यह जानना चाहिए कि कहीं अभिनय महत्त्वपूर्ण है, कहीं चाक्षुष तत्व अधिक महत्त्वपूर्ण है, कहीं नाटक और कहीं संगीत अधिक महत्त्वपूर्ण है। संगीत के महत्त्व को अधिसंख्य प्रेक्षक नहीं समझते। यह एक दुखद स्थिति है। कहीं मौन और स्थिरता पूरी फ़िल्म को गहरा अर्थ देती है। मौन ऐसा तत्व जिसका संबंध ध्वनि यंत्र (साउन्ड ट्रैक) से है और यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण योग देता है। स्थिरता का भी एक विशिष्ट योग है — घटनाओं, प्रसंगों, मुद्राओं की गति अचानक रुक जाये, हर चीज स्थिर हो जाये, यह स्पर्श प्रचंड प्रभाव उत्पन्न करता है।
*विभाजन की त्रासदी और ऋत्विक घटक का सिनेमा*
ऋत्विक घटक का जन्म ढाका में हुआ था और विभाजन ने उन्हें हमेशा के लिए अपनी जन्मभूमि से अलग कर दिया था, जिसका उनके मानस पर गहरा असर दिखाई देता है और यही वजह है कि विभाजन की त्रासदी ऋत्विक घटक कि फ़िल्मों की केन्द्रीय थीम है। विनोद दास का यह कहना बिल्कुल सही है कि “ऋत्विक घटक की फिल्में विभाजन के रिसते हुए घाव है। उनकी फ़िल्मों में प्रवेश करना एक ऐसी यंत्रणादायक दुनिया में पहुंचना है, जिसमें अपनी धूल-मिट्टी और जमीन से बेदखल आदमी की आत्मा से रिसते हुए खून की बूंदें उस भौगोलिक रेखा का बार-बार पीछा करती रहती हैं, जिसने उसकी जातीय समग्रता और संपूर्णता बोध को तहस-नहस कर दिया है — आत्मवंचना से भरा एक ऐसा यातनागृह, जिसके अंधेरे में मनुष्य अपने-आपको अनाथ, असहाय और टूटा हुआ पाता है।”
घटक की फ़िल्मों के बारे में विनोद दास का यह कहना भी सही है कि “मनुष्य की अस्मिता की पहचान ऋत्विक की सबसे बड़ी चिंता है। अपनी पहचान के बिना मनुष्य अधूरा है। मनुष्य का अधूरापन ऋत्विक घटक की फ़िल्मों का मूल कथ्य है। उनकी सभी फिल्में मनुष्य को अधूरा बनाये जाने का प्रतिकार करती है।” उनकी यह बात विभाजन पर बनी फ़िल्मों पर ही लागू नहीं होती, उनकी लगभग सभी फ़िल्मों पर भी लागू होती है।
विभाजन पर बनी फ़िल्मों पर देश-विदेश के बहुत से विद्वानों ने आलेख, शोध प्रबंध और पुस्तकें लिखी हैं। इन्हीं में एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है भास्कर सरकार की ‘माॅर्निंग द नेशनः इंडियन सिनेमा इन दि वेक ऑफ पार्टिशन’ (राष्ट्र का शोक : विभाजन और भारतीय सिनेमा)। अंग्रेजी में लिखी इस पुस्तक में विभाजन के बाद भारत में बनी उन फ़िल्मों पर विचार किया गया है, जिनमें विभाजन की त्रासदी का संदर्भ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में मौजूद है। लेखक ने मुख्य रूप से हिंदी और बांग्ला फ़िल्मों को ही व्याख्या के लिए चुना है। वैसे भी विभाजन पर अधिकतर फ़िल्में इन्हीं दो भाषाओं में बनी हैं। इस पुस्तक में लेखक ने फ़िल्मों पर ही विचार नहीं किया है, बल्कि विभाजन के समय की परिस्थितियों और उन परिस्थितियों पर भी विस्तार से विचार किया है, जिस दौरान ये फ़िल्में बनी हैं। लेखक ने ‘नेशनल सिनेमा’ज हर्मेन्युटिक ऑफ माॅर्निंग’ (शोक की राष्ट्रीय सिनेमा की व्याख्या) शीर्षक से पुस्तक की एक विस्तृत प्रस्तावना भी लिखी है। लेखक का कहना है कि उसने स्वतंत्रता प्राप्ति के आरंभिक दो-तीन दशकों तक विभाजन के दौरान हुए दंगों और विस्थापन से जुड़े भयावह अनुभवों को लेकर दिखायी देती चुप्पी, मानो वह मामूली-सा घाव हो और बाद में एक मजबूत, और यदा-कदा सनक की तरह विभाजन विमर्श के उभार को समझने का प्रयास किया है। इस बदलाव का संबंध राष्ट्रीय निर्माण की परियोजना के उभरते जाने से है, जो आरंभिक दशकों में सरकारी नीति पर केंद्रित राष्ट्र की धर्मनिरपेक्ष कल्पना और राज्य द्वारा प्रायोजित पूंजीवादी विकास के जरिए आर्थिक आत्मनिर्भरता हासिल करने के गौरवपूर्ण आग्रह से संबद्ध थी और अब जिसका संबंध एक दूसरे के विरोधी प्रतीत होते भूमंडलीकरण और धार्मिक राष्ट्रवाद के आंदोलनों की ओर साथ-साथ बढ़ने से है। चूंकि विभाजन को व्यापक ऐतिहासिक प्रक्रियाओं से अलगाकर नहीं देखा जा सकता, इसलिए लेखक के अनुसार, इस पुस्तक को भी आधुनिकता और राष्ट्रीयता के भारतीय अनुभवों को सिनेमा रूपी आईने के माध्यम से शोक की आलोचनात्मक परियोजना के रूप में व्यक्त होना है।
भास्कर सरकार ने अपनी इस पुस्तक में भारत के विभाजन को भारतीय आधुनिक के व्यापक ट्राॅमा के अंतर्गत एक खौफ़नाक क्षण के रूप में विचार किया है। विभाजन टूटन के क्षण का चिह्न है, सभी बूर्जुआ गठनों की स्थानिकता के संरचनात्मक अभाव का ऐतिहासिक बोध है। वे कहते हैं कि उन्होंने सिर्फ फ़िल्मों के पाठों का विश्लेषण नहीं किया है, वरन निर्माताओं, दर्शकों, सेंसर बोर्ड और फ़िल्म समीक्षकों जैसे विभिन्न समूहों की भूमिकाओं और ऐसे सांस्कृतिक मामलों की अंतरआत्मपरक प्रकृति पर भी विचार किया है (इंट्रोडक्शन, पृ.19)। आंद्रे बाजां को उद्धृत करते हुए वे कहते हैं कि सिनेमा बीते हुए समय को परिरक्षित करने में सक्षम है। जीवन में हम प्रत्येक क्षण को एक बार ही जीते हैं, उसे न तो दोबारा जी सकते हैं और न ही उसे दोहरा सकते हैं। लेकिन फ़िल्म में उस व्यतीत हो चुके क्षण को बारबार देख सकते हैं और जी सकते हैं (वही, पृ.20)। विभाजन के आघात से उभरना आसान नहीं होता। हालांकि अनुभवों को एक निश्चित आकार लेने में समय लगता है। उनको याद करना कोई समस्या नहीं है क्योंकि उन्हें भूला नहीं जा सकता। इसके विपरीत वे असंबद्ध और अबोधगम्य रूप में निरंतर दिमाग में छाये रहते हैं। विभाजन की हिंसा से बचे लोगों के बयानों से जहां एक ओर संवेदन शून्यता प्रकट होती है, तो दूसरी ओर उन बातों पर यकीन करने का जी नहीं करता। क्या यह सब कुछ सच हो सकता है? अपनी अबोधगम्यता में ये अनुभव आघात की विशिष्टताओं को प्रकट करते हैं। इन बयानों में विभाजन की उथल-पुथल ऐसे रूप में सामने आती है, मानो कुछ समय के लिए सभी लोग उन्मादग्रस्त हो गये हों। तर्क ने मनुष्य का साथ छोड़ दिया हो और वह हिंसक, विचारशून्य और वहशी बन गया हो।
भास्कर सरकार ने पुस्तक के पांचवे अध्याय में ऋत्विक घटक की विभाजन संबंधी फ़िल्मों की विवेचना प्रस्तुत की है। घटक बांग्ला फ़िल्मों के विद्रोही प्रकृति के निर्देशक थे। वे विभाजन संबंधी आख्यानों को सिनेमाई रूप देने वाले सर्वाधिक उल्लेखनीय फ़िल्मकार थे। हालांकि ठीक-ठीक कहा जाए, तो उनकी फ़िल्मों का संदर्भ सामाजिक विघटन की व्यापक प्रक्रिया है। घटक स्वयं भू-राजनीतिक विभाजन के लिए मूल प्राथमिकता का दावा करते हैं : “निमग्न अनिश्चितता, दरार जो मैं देखता हूँ — उसकी जड़ें बंगाल के विभाजन में निहित है”। घटक के लिए बंगाल राष्ट्र के लघु रूप से ज्यादा है : अपने भावनात्मक क्षितिज में, यह राष्ट्र ही है। टूूटने के बाद बचे बंगाल को जिन समस्याओं — शरणार्थियों का विस्थापन, बेरोजगारी, गरीबी और भूखमरी, भ्रष्टाचार, उदासीनता और हताशा — का सामना करना पड़ रहा था, गहन रूप से उस पर अपने को केंद्रित करते हुए उन्होंने स्वातंत्र्योत्तर राष्ट्रवादी परियोजना की अपनी आलोचना सामने लाते हैं। निर्देशक के तौर पर अपनी पहली फ़िल्म नागरिक (1952) से अपनी अंतिम फ़िल्म ‘जुक्ति, तक्को आर गप्पो’ (1976) तक में समय संबंधी मतिभ्रम के रूप में घटना के वर्चस्ववादी पुनर्निर्माण को चुनौती देते हुए उन्होंने विभाजन और उसके अप्रत्यक्ष प्रभावों के साथ अपने जुड़ाव को बनाये रखा। ऋत्विक घटक की 1960 के दशक के शुरुआत की तीन फ़िल्में मेघे ढाका तारा (1960), कोमल गांधार (1961) और सुबर्णरेखा (1962) को विभाजन से संबंधित त्रयी माना जाता है। मेघे ढाका तारा में एक लड़की नीता (सुप्रिया चौधरी) की कहानी है, जो विभाजन से उखड़े एक परिवार की सबसे बड़ी बेटी है और जो अब एक शरणार्थी काॅलोनी में रहकर जीवनयापन की कोशिश कर रहे हैं। नीता के पिता वृद्ध और कमजोर हो चुके हैं और बड़ा भाई शंकर (अनिल चटर्जी) गायक बनने के अपने सपने को पूरा करने में ही व्यस्त रहता है, इसलिए नीता कोे अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए दिन-रात खटना पड़ता है। परिवार के भविष्य के प्रति चिंता के कारण मां का व्यवहार नीता के प्रति कठोर रहता है। उसे हमेशा डर रहता है कि नीता कहीं परिवार को छोड़कर न चली जाए। छोटे भाई मोंटू को फुटबाल के कारण नौकरी तो मिल जाती है, लेकिन दुर्घटना में वह अपंग हो जाता है। छोटी बहन गीता नीता के प्रेमी सनत को उससे दूर कर देती है, ताकि वह उससे विवाह न कर सके और परिवार को अधर में न छोड़ दे। इन्हीं सब घटनाओं के बीच बड़ा भाई बंबई में गायक के रूप में कामयाब होकर घर लौटता है। लेकिन तब तक नीता शारीरिक और मानसिक श्रम से इतना थक जाती है कि वह उसके लिए जानलेवा साबित होते हैं। वह क्षय रोग से ग्रसित हो जाती है। शंकर नीता को शिलांग के पहाड़ों पर बने एक सेनिटोरियम में रहने की व्यवस्था करता है।
‘कोमल गांधार’ की नायिका अनसूया (सुप्रिया चौधरी) 1946 के दंगों में अपना परिवार खो चुकी है। वह अपने अलगाव से परे जाने के लिए एक थियेटर ग्रुप में शामिल हो जाती है। अहंकारों का टकराव, नाटक मंडली में टुच्ची गुटबंदी और ईर्ष्या से प्रेरित होकर भीतरघात जैसे अवरोधों को पराजित करते हुए अंततः वह कलात्मक संतुष्टि और एक नया समुदाय हासिल कर लेती है। उसे नाटक मंडली के नेता भृगुु (अबनीश चटर्जी) में रचनात्मक सहभागिता और रूमानी प्यार दोनों मिलते हैं और उसके प्रति उसमें गहरा लगाव पैदा हो जाता है। अनसूया की जीवन यात्रा के माध्यम से घटक सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय संलग्नता के जरिए खोने और विलगाव से मुक्त होने की संभावना को कल्पनाशील ढंग से खोजते हैं.

‘सुबर्णरेखा’ (1962) जीवन के स्याह पक्ष की कहानी है। घटक इस फ़िल्म के माध्यम से विभाजनोतर स्थिति का चित्र प्रस्तुत करते हैं, जो एक ही समय में बहुत अधिक व्याकुल करने वाला है, तो मेघे ढाका तारा से ज्यादा यूटोपियाई है। अपने माता-पिता की मौत के बाद ईश्वर चक्रवर्ती (अभी भट्टाचार्य) अपनी छोटी बहन सीता (माधवी मुखर्जी) के साथ पूर्वी बंगाल से पश्चिम की ओर आकर एक शरणार्थी काॅलोनी में बस जाते हैं। उनके साथ अभिराम नाम का एक अनाथ लड़का भी है, जिसकी मां को उसकी आँखों के सामने ही उठा लिया गया था। अपने परिवार के पालन-पोषण में आने वाली कठिनाईयों से विचलित होकर ईश्वर स्थानीय स्कूल में अध्यापक की नौकरी से इस्तीफा देकर एक फाउंड्री में नौकरी कर लेता है। इस कदम से वह अपनी तरह शरणार्थी दोस्त हरप्रसाद (बिजन भट्टाचार्य) को अपने से दूर कर लेता है। ईश्वर अपने परिवार के साथ पश्चिम बंगाल के सुरम्य पठारी इलाके में चला जाता है और सुवर्णरेखा नदी के किनारे अपना घर बसा लेता है। अभिराम को पढ़ने के लिए पहले बोर्डिंग स्कूल भेजा जाता है और बाद में कालेज। वह स्नातक करने के बाद लेखन की ओर जाना चाहता है, लेकिन ईश्वर उसे इंजीनियरिंग पढ़ने के लिए जर्मनी भेजना चाहता है। सीता जैसे-जैसे बड़ी होती है, वह संगीत और घरेलू कामों में अपनी प्रभावशाली प्रतिभा विकसित कर लेती है। उसमें ईश्वर के प्रति मां जैसी भावना पैदा हो जाती है। समय के साथ वे एक दूसरे के साथ विवाहित दंपति की तरह व्यवहार करने लगते हैं। उनमें परस्पर गहन और अवचेतन रूप में यौनाकर्षण उत्पन्न हो जाता है। रक्त संबंधों के लगातार धुंधले पड़ते जाने के दौरान ही, सीता और अभिराम जो भाई-बहन की तरह बड़े हुए थे, एक दूसरे से प्यार करने लगते हैं। ईश्वर उनके इस संबंध को स्वीकार नहीं करता। अभिराम के प्रति उसका रुख तब और कड़ा हो जाता है, जब सड़क पर मरती एक औरत को अभिराम सबके सामने अपनी खोई हुई मां बताता है और जिससे ईश्वर को मालूम पड़ता है कि अभिराम निम्न जाति का है। सीता और अभिराम कलकत्ता भाग जाते हैं और वहां शादी कर लेते हैं। अभिराम की एक दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है और गरीबी से परेशान होकर सीता वैश्यावृत्ति अपना लेती है। घटनाओं के अजीबोगरीब मोड़ में शराब पीया हुआ ईश्वर उसके पहले ग्राहक के रूप में पहुंचता है। इससे सीता पर इतना गहरा आघात लगता है कि वह आत्महत्या कर लेती है। पारिवारिक संबंधों की इस मूलगामी अनावृत्ति के द्वारा घटक राष्ट्रीय संकट के बढ़ते बोध को पकड़ते हैं और समकालीन सामाजिक संरचनाओं में अंतर्निहित अंतर्विरोधों में उसके मूल की ओर संकेत करते हैं। फिर भी, फ़िल्म उत्कट यूटोपियन झुकाव को बनाए रखती है : ईश्वर सीता और अभिराम के नवजात पुत्र को लेकर सुबर्णरेखा के किनारे लौट आता है।
ऋत्विक घटक की प्रायः सभी फ़िल्मों, खासतौर पर विभाजन से संबंधित त्रयी की संपूर्ण संरचना की विशिष्टता अति मेलोड्रामाई शैली है। अतिशय भावुकता, अविश्वसनीय संयोग, अभिनय की नाटकीय शैली से दर्शक और आलोचक दोनों ही असहज महसूस करते हैं : मेघे ढाका तारा में जब नीता सनत के अपार्टमेंट में किसी और स्त्री को देखती है और स्तब्ध होकर वहां से निकल जाती है, तो उसे अपने साथ विश्वासघात का एहसास होता है, यही विश्वासघात चाबुक की ध्वनि संप्रेषित करती है। यह ध्वनि प्रभाव फ़िल्म में कई बार लौटता है, खास तौर पर उस समय जब सनत नीता के पास वापस लौटने की कोशिश करता है और नीता इसे नामंजूर कर देती है। उस समय सनत के अवसाद की अभिव्यक्ति इसी ध्वनि प्रभाव द्वारा संप्रेषित होती है। कोमल गांधार में जब भृगु को मालूम पड़ता है कि दूर फ्रांस में अनसूया का एक मंगेतर है, ठीक उसी समय पृष्ठभूमि में कार टकराती है। सुबर्णरेखा में कथानक लगातार आने वाले अविश्वसनीय संयोगों के द्वारा ही आगे बढ़ता है। मसलन, बहुत लंबे समय तक बिछड़ा हुआ दोस्त हर प्रसाद ठीक उस समय पहुँच जाता है, जब ईश्वर अपने आपको फांसी पर लटकाने की तैयारी कर रहा होता है या शराब पीकर रंगरेलियां मनाने के लिए ईश्वर का अपनी बहन के दरवाजे पर पहुँचना। घटक मेलो ड्रामा को एक शैली मानते हैं और यथार्थ की जटिलताओं को पेश करने के लिए वे इसका सफलतापूर्वक उपयोग भी करते हैं।
भास्कर सरकार का मानना है कि घटक के यहां स्थिर सामाजिक-ऐतिहासिक विश्लेषण में गहन निजी यातना का बोध बार-बार फूट पड़ता है। बंगाल के विभाजन के क्षणों में लौटने की सनक, स्वातंत्र्योत्तर दौर की सभी सामाजिक समस्याओं से विभाजन की ओर लौटना इस बात को बताता है कि विभाजन ने उन्हें निजी तौर पर किस हद तक विचलित किया है। वे अपनी पीड़ा और मोहभंग को दुर्लभ आलोचनात्मक आवेश में बदल देते हैं, उसे सामाजिक क्षेत्र और राज्य की ओर मोड़ लेते हैं। वे ऐतिहासिक विचलन के रूप में विभाजन की अवमूल्यकारी सरकारी समझ को स्वीकार करने से इंकार करते हैं और आम चुप्पी के विरुद्ध काम करते हैं। फ़िल्मकार कुमार शहानी का मानना है कि घटक की फ़िल्में अस्मिता के उग्र दृढ़-कथन से निर्मित हैं, जो देशीय और पश्चिमी दोनों तरह की संरचनाओं के वर्चस्व को चुनौती देती है। यह मेघे ढाका तारा में एक मरती हुई लड़की की चीख है, *मैं जीना चाहती हूँ* और जिसकी प्रतिध्वनि पहाड़ों में गूंजती हैं।
(साभार : नया पथ। लेखक इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय के सेवा निवृत्त प्राध्यापक हैं। जनवादी लेखक संघ के उपाध्यक्ष हैं। )



