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उर्दू पर सर्वोच्च न्यायालय का अभूतपूर्व फैसला-हिन्दुस्तानियत का पर्याय है उर्दू

डॉ. गिरीश

राष्ट्रीय सचिव कम्युनिस्ट पार्टी

नफरत और विभाजन का खेल खेल कर सत्ता पर काबिज होने वाले सांप्रदायिक फासीवादी और कारपोरेट भक्तों द्वारा खड़े किये गये फर्जी किले एक के बाद एक ढहते जा रहे हैं। कई किलों को जनता ने अपने अनुभवों और आंदोलनों से धराशायी कर दिया तो कई एक न्यायपालिका ने अपने बेलाग फैसलों से ढहा दिये हैं। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा कानून को ठेंगा दिखा कर लोगों को प्रताड़ित करने पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा व्यक्त तीखी प्रतिक्रिया अभी जहन में ताजातरीन थी लेकिन उर्दू भाषा के संबंध में एक महत्वपूर्ण फैसला देकर सर्वोच्च न्यायालय ने सांप्रदायवादियों की वर्षों से चली आ रही साजिश पर पानी फेर दिया है। इससे पूर्व मोदी सरकार द्वारा थोपे गये  भूमि सुधार कानून को किसानों ने अपने व्यापक आंदोलन से शीतग्रह में पहुंचा दिया था तो जनविरोधी सरकार से नाराज जनता ने लोकसभा चुनावों में 240 सीटों पर समेट कर अबकी बार चार सौ पार के हसीन सपने को ज़मींदोज़ कर दिया।

यूं तो संप्रदायवादी आज़ादी के बाद से ही उर्दू को लेकर नफरत और विभाजन की आग भड़काते रहे हैं लेकिन हाल का घटनाक्रम महाराष्ट्र से जुड़ा है। महाराष्ट्र के अकोला जिले में पातुर नगरपालिका परिषद की इमारत के एक साइनबोर्ड पर मराठी के साथ उर्दू भी लिखे जाने के विरोध में सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गयी थी। न्यायालय ने इस मामले में जो आदेश दिया है, उसने उर्दू पर विवाद खड़ा करने वालों की हवा निकाल दी है। अपने निर्णय में उर्दू को भारतीय भाषा बताते हुये सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि भाषा एक समुदाय, एक क्षेत्र और लोगों की होती है, किसी धर्म की नहीं। इसका इस्लाम से भी कोई संबंध नहीं है। भारत में जन्मी और फली- फूली यह भाषा गंगा- जमुनी तहजीव या हिन्दुस्तानी तहजीव का बेहतरीन नमूना है।

सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले ने जबर्दस्त तारीफ बटोरी है। वो इसलिए भी कि यह फैसला एक ऐसे दौर में आया है जबकि प्रतिक्रियावादी शक्तियों द्वारा भारत की सामासिक संस्कृति को पूरी तरह उलट पुलट कर अलगाव की आंधी पैदा की जा रही है। जीवन से जुड़ी हर चीज को मजहब के नजरिए से पेश किया जा रहा है। इसी नजरिये से उर्दू को भी मजहवी जुबान-  इस्लाम धर्म की जुबान बताया जा रहा था। पर उर्दू तो क्या दुनियाँ की कोई जुबान मजहबी नहीं होती है। मजहबी ग्रन्थों की श्रेणी में आने वाले भारत के अनेक ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं। तो क्या संस्कृत को किसी धर्म विशेष की भाषा कहा जा सकता है? यदि ऐसा होता तो कट्टर हिन्दुत्व के इस दौर में सत्तासीन लोग हर नागरिक को संस्कृत बोलने, लिखने और पढ़ने को अवश्य ही बाध्य कर रहे होते।

जहां तक उर्दू का सवाल है इसकी पैदाइश ही इंडो-योरोपियन फैमिली ( भारोपीय भाषा परिवार ) में हुयी है।12वीं से 15वीं शताब्दी के बीच भारत भूमि पर भारतीयों द्वारा विकसित इस भाषा को कई विद्वान संस्कृत से पैदा हुयी भाषा बताते हैं तो अन्य कई का विश्वास है कि यह ब्रजभाषा आदि उत्तर- पश्चिमी भारत की क्षेत्रीय भाषाओं की बेटी है। इसकी बड़ी खूबसूरती यह है कि इसने भारतीयता को खोये बिना फारसी अरबी तुर्की भाषा के शब्दों से अपने को समृद्ध किया है। ऐसे में सर्वोच्च  न्यायालय के उपर्युक्त फैसले ने यह साफ कर दिया कि संविधान के तहत मराठी और उर्दू को समान दर्जा प्राप्त है। न्यायालय ने वादी के इस दावे को कि उर्दू को हटा कर केवल मराठी का ही प्रयोग किया जाये, सिरे से खारिज कर दिया।

निश्चय ही यह एकदम गलत धारणा है कि हिन्दी केवल हिंदुओं की भाषा है और उर्दू केवल मुस्लिमों की। यह प्रतिमान निहित राजनैतिक स्वार्थों को पूरा करने को गड़ा गया है।  न्यायालय ने बहुत स्पष्ट तरीके से कहा  है और भाषा को धर्म की ओर धकेलने के लिए औपनिवेशिक शक्तियों को दोषी ठहराया है। सच तो यह है कि धर्म की कोई भाषा नहीं होती, और भाषा का कोई धर्म नहीं होता। भाषा का आधार केवल क्षेत्रीयता और समाज की जरूरत होता है। समाज की जरूरत के हिसाब से भाषा का रूप बदलता रहता है। भारत जैसे विविध धर्मों और भाषाओं वाले देश में तो भाषा और धर्म के बीच कोई भी संबंध बताना समाज को बांटने के अलावा अन्य कुछ नहीं। भाषा का मूल उद्देश्य आपसी संवाद और भावों का संचरण है। परस्पर संवाद के लिए ही उर्दू का विकास हुआ था। समाज ने अपनी सुविधा और आवश्यकता के अनुसार इस भाषा को गढ़ा और उसमें बेहतरीन साहित्य लिखा गया। और अंततः यह हिंदुस्तानियत का पर्याय बन गयी।

और इस साहित्य को लिखने वाले किसी एक धर्म के अनुयायी नहीं थे। प्रारम्भ में मुंशी प्रेमचंद ने उर्दू में ही साहित्य की रचना की। आनन्द मुल्ला हों यह रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी, आखिर इस्लामिक तो नहीं थे। साहिर लुधियानवी, अली सरदार जाफरी अथवा कैफी आज़मी आदि इस्लामिक घरानों में पैदा होने के बावजूद अनीश्वरवादी थे। कुछ दशक पहले तक बालीबुड की फिल्मों के अधिकतर तराने उर्दू शब्दाबली से सराबोर थे।उर्दू के बिना बॉलीबुड के गीतों और संगीत की कल्पना तक नहीं की जा सकती। हमारी राजनीति पर भी उर्दू का व्यापक प्रभाव रहा है। आज़ादी के आंदोलन में जन्मा सबसे पौपुलर नारा- इंकलाब जिंदाबाद- जो आज भी व्यापक तौर पर प्रचलित है, आखिर उर्दू भाषा की कोख से निकला है। भारतभूमि और भारतवासियों के कण कण और रग रग में रची बसी है उर्दू।

ऐसी मकबूल जुबान को विभाजनवादी धर्म से जोड़ कर उसे मिटाने की नाकाम कोशिश करते रहे हैं। पर ऐसी कोशिशें कभी कामयाब नहीं होंगी। वे हमें थोड़े समय के लिए  हतोत्साहित कर सकती हैं। यदि ऐसा न होता तो हर धर्म संप्रदाय के लोग उर्दू शेरो- शायरी की दुनियाँ में न आ रहे होते। अनेक लोग अपने भाषणों को धार देने को शेरो- शायरी का सहारा लेते हैं। इसका सीधा मतलब है कि विभाजनकारियों की साजिशें नाकाम हो रही हैं। जो चीजें दिल को छूने वाली होती हैं उन्हें आसानी से खत्म नहीं किया जा सकता है।

उर्दू को अपनी नफरत की राजनीति का औज़ार बनाने का मौका दक्षिणपंथियों को इसलिए मिल गया कि आजादी के बाद विभाजन के समय मजहब के आधार पर बने देश- पाकिस्तान ने अपनी भाषा के रूप में उसे प्राथमिकता दी। ठीक है उर्दू आज पाकिस्तान की मुख्य भाषा है, लेकिन इसका यह कदापि मतलब नहीं कि यह कोई मजहबी भाषा हो गयी। यदि ऐसा होता तो पाकिस्तान शायद ही टूटता। अपितु सच तो यह है कि  उर्दू को दूसरे भाग और भाषाभाषी लोगों पर थोपना भी बंगला देश के निर्माण का एक कारण बना था। मतलब साफ है- किसी भाषा को थोपने से समाज में टूटन पैदा होती है और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निस्तारित याचिका का यह स्पष्ट संदेश है।

उल्लेखनीय बात यह है कि सर्वोच्च न्यायालय फैसला सुनाते वक्त भाषा तक ही नहीं रुका। एक कदम आगे बढ़ कर उसने बिलकुल सही कहा कि हमें अपनी विविधता का सम्मान करना चाहिये और उसमें आनन्द लेना चाहिये। भारत में सौ से ज्यादा प्रमुख भाषाएँ हैं। अन्य अनेक हैं जिन्हें बोलियाँ कहा जाता है। भाषा और बोली के इन कड़वे और वेवजह विवादों से हमें बचना चाहिये। उर्दू को साइनबोर्ड से हटाने के लिये राजनीति से प्रेरित याचिकाकर्ता ने पाँच साल से भी अधिक समय वेवजह  गंवा दिया। इतना ही समय भारतीय भाषाओं में निहित प्रेम समन्वय के भावों के प्रचार में लगाया गया होता, तो ज्यादा बेहतर होता।

 

न्यायालय का फैसला भारतीयों के लिए यह सबक है कि हम किसी भी ऐसी भाषा के विरोध से बचें, जिसे सांविधानिक मान्यता मिली हुयी है। भाषा लोगों को जोड़ने का काम करती है, विभाजन का नहीं। भाषा से वही काम हमें लेना चाहिये। उर्दू हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है, इस विरासत को हमसे कतई अलग नहीं किया जा सकता। माननीय न्यायाधीशों ने इस हकीकत  को और मजबूती दी है। न्यायालय ने निहित स्वार्थों द्वारा फैलाई जा रही धारणाओं का जबाव तो दिया ही है, भारतभूमि की स्वभावगत संस्कृति को तरजीह दी है।

 

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