भारतीय राजनीति में अपनी दिव्यांगता को ताकत बनाकर नई दिशा गढ़ने वाले प्रमुख चेहरे

डॉ. अतुल मलिकराम (राजनीतिक रानीतिकार)
भारतीय लोकतंत्र की सबसे अनोखी विशेषता यह है कि यहाँ नेतृत्व कभी शारीरिक क्षमता या रंग-रूप से नहीं नापा जाता, बल्कि जनता के विश्वास और संघर्ष की भावना के साथ दूरदर्शी सोच से तय होता है। भारत के राजनीतिक इतिहास में ऐसे अनेक और महान नेता हुए हैं जिन्होंने नेत्रहीनता, पैरालिसिस या अन्य गंभीर शारीरिक स्थितियों का सामना करते हुए न केवल राजनीति के उच्चतम स्तर पर पहुंचे, बल्कि दिव्यांगता को एक अलग तरह की ताकत और संवेदना के साथ जोड़ा। इस श्रंखला में नेत्रहीनता से परे जनसेवा का अटूट जज्बा रखने वाले यमुना प्रसाद शास्त्री से स्वतंत्र भारत के पहले नेत्रहीन सांसद और दिव्यांग अधिकारों के अग्रदूत साधन गुप्ता जैसे नाम शामिल हैं।
यमुना प्रसाद शास्त्री स्वतंत्रता संग्राम के उन वीर योद्धाओं में से थे जिन्होंने गोवा मुक्ति आंदोलन में हिस्सा लिया। पुर्तगाली पुलिस की गोली से एक आँख गँवाई और बाद में पूरी दृष्टि खो बैठे। अंधेरे में डूबने के बजाय उन्होंने राजनीति को अपना हथियार बनाया। जनता पार्टी के टिकट पर मध्य प्रदेश की रीवा लोकसभा सीट से चुनाव लड़े और जीते। नेत्रहीन होकर भी संसद में सक्रिय रहे, बहसों में हिस्सा लिया, जनता के मुद्देभारतीय राजनीति में अपनी दिव्यांगता को ताकत बनाकर नई दिशा गढ़ने वाले प्रमुख चेहरे – डॉ अतुल मलिकराम (राजनीतिक रानीतिकार)*
भारतीय लोकतंत्र की सबसे अनोखी विशेषता यह है कि यहाँ नेतृत्व कभी शारीरिक क्षमता या रंग-रूप से नहीं नापा जाता, बल्कि जनता के विश्वास और संघर्ष की भावना के साथ दूरदर्शी सोच से तय होता है। भारत के राजनीतिक इतिहास में ऐसे अनेक और महान नेता हुए हैं जिन्होंने नेत्रहीनता, पैरालिसिस या अन्य गंभीर शारीरिक स्थितियों का सामना करते हुए न केवल राजनीति के उच्चतम स्तर पर पहुंचे, बल्कि दिव्यांगता को एक अलग तरह की ताकत और संवेदना के साथ जोड़ा। इस श्रंखला में नेत्रहीनता से परे जनसेवा का अटूट जज्बा रखने वाले यमुना प्रसाद शास्त्री से स्वतंत्र भारत के पहले नेत्रहीन सांसद और दिव्यांग अधिकारों के अग्रदूत साधन गुप्ता जैसे नाम शामिल हैं।
यमुना प्रसाद शास्त्री स्वतंत्रता संग्राम के उन वीर योद्धाओं में से थे जिन्होंने गोवा मुक्ति आंदोलन में हिस्सा लिया। पुर्तगाली पुलिस की गोली से एक आँख गँवाई और बाद में पूरी दृष्टि खो बैठे। अंधेरे में डूबने के बजाय उन्होंने राजनीति को अपना हथियार बनाया। जनता पार्टी के टिकट पर मध्य प्रदेश की रीवा लोकसभा सीट से चुनाव लड़े और जीते। नेत्रहीन होकर भी संसद में सक्रिय रहे, बहसों में हिस्सा लिया, जनता के मुद्दे उठाए और विधायी कार्यों में योगदान दिया। उनकी विरासत आज भी उन लाखों नेत्रहीन लोगों के लिए प्रेरणा है जो समाज की मुख्यधारा में शामिल होना चाहते हैं। इस कड़ी में दूसरा नाम बचपन में पोलियो का शिकार हुए एस. जयपाल रेड्डी का है जो जीवनभर बैसाखी के सहारे चलने के बावजूद अपनी बुद्धिमत्ता, वाक्पटुता और राजनीतिक महत्वाकांक्षा के बूते कांग्रेस के प्रमुख नेता के रूप में चार बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा सदस्य रहे। संसद में उनकी तर्कपूर्ण, ओजस्वी और ज्ञानपूर्ण बहसें विपक्ष तक को प्रभावित करती थीं। उनकी विरासत बौद्धिक राजनीति और दिव्यांग प्रतिनिधित्व की मजबूत मिसाल है।
ऐसा ही एक नाम व्हीलचेयर पर बैठकर नए राज्य छत्तीसगढ़ को उड़ान देने वाले पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी का है, जो भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी से राजनीति में आए थे। जब 2000 में छत्तीसगढ़ नया राज्य बना, तो कांग्रेस ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया। आदिवासी बहुल इस राज्य की नींव रखने, विकास योजनाएँ शुरू करने और प्रशासनिक ढांचा खड़ा करने में उनका योगदान अतुलनीय रहा। 2004 में एक सड़क दुर्घटना ने उन्हें कमर से नीचे पूरी तरह पैरालाइज कर दिया। जीवन भर व्हीलचेयर पर रहे, लेकिन राजनीति और जनसेवा नहीं छोड़ी। दुर्घटना के बाद भी चुनाव लड़े, अपनी पार्टी जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ बनाई और हमेशा सक्रिय रहे। जोगी साहब ने साबित किया कि पैरालाइज्ड शरीर राज्य को कभी पैरालाइज नहीं होने देता। वहीं एक हाथ से दिव्यांग होकर राजस्थान की कमान तीन बार संभालने वाले सादगी के पुजारी हरिदेव जोशी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। बचपन में एक संक्रमण के कारण एक हाथ गँवा बैठे जोशी ने अपने हौसले नहीं तोड़े। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने राज्य में विकास कार्यों, सामाजिक न्याय और जन कल्याण की मजबूत नींव रखी। पुलों का निर्माण, विश्वविद्यालयों की स्थापना, सिंचाई परियोजनाएँ और ग्रामीण विकास उनके कार्यकाल की पहचान बने। कोई दो राय नहीं कि उनकी विरासत राजस्थान की राजनीति में सादगी, समर्पण और ट्राइबल क्षेत्रों के विकास की मिसाल है।
महाराष्ट्र की राजनीति के अजेय योद्धा शरद पवार को मुंह का कैंसर हुआ। कीमोथेरेपी और इलाज के कठिन दौर में भी उन्होंने राजनीति नहीं छोड़ी। महाराष्ट्र के चार बार मुख्यमंत्री, केंद्रीय कृषि मंत्री और एनसीपी के संस्थापक के रूप में उन्होंने जो राजनीतिक साम्राज्य खड़ा किया, वह आज भी अटल है। कृषि, सहकारिता और गठबंधन राजनीति में उनका योगदान अतुलनीय है। पवार साहब ने साबित किया कि बीमारी शरीर को तोड़ सकती है, लेकिन इरादों को नहीं। ऐसा ही एक नाम व्हीलचेयर पर बैठकर तमिलनाडु पर आधी सदी राज करने वाले द्रविड़ गाथा के नायक एम. करुणानिधि का है जिन्हे द्रविड़ राजनीति का पुरोधा कहा जाता है। अंतिम वर्षों में स्पाइन सर्जरी के बाद व्हीलचेयर पर रहे। फिर भी पांच बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने। डीएमके के संस्थापक के रूप में उन्होंने द्रविड़ आंदोलन को नई ऊंचाई दी, तमिल भाषा-संस्कृति की रक्षा की और सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी।
इस कड़ी में स्वतंत्र भारत के पहले नेत्रहीन सांसद और दिव्यांग अधिकारों के अग्रदूत साधन गुप्ता का नाम महत्वपूर्ण रूप से जरुरी है. बचपन में चेचक से पूरी तरह नेत्रहीन हो गए गुप्ता ने शिक्षा को अपना हथियार बनाया। कलकत्ता के ब्लाइंड स्कूल से पढ़ाई की, वकील बने और कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े। 1953 में उपचुनाव जीतकर लोकसभा पहुँचे और स्वतंत्र भारत के पहले नेत्रहीन सांसद बने। गुप्ता ने दिव्यांग अधिकारों की लड़ाई लड़ी और नेशनल फेडरेशन ऑफ द ब्लाइंड की स्थापना की। संसद में नेत्रहीनों की शिक्षा, रोजगार और अधिकारों के लिए आवाज उठाई। गुप्ता ने साबित किया कि अंधेरा इरादों को नहीं रोक सकता।
यह दिव्यांग नेता भारतीय राजनीति के जीवंत प्रतीक हैं जिनकी यात्रा साबित करती है कि दिव्यांगता शरीर की सीमा हो सकती है, लेकिन इरादों, सपनों और संकल्प की कोई सीमा नहीं होती। साधन गुप्ता की नेत्रहीनता से लेकर करुणानिधि की व्हीलचेयर तक, हरि देव जोशी के एक हाथ से शरद पवार की कैंसर की लड़ाई तक, इन सभी ने अपनी चुनौतियों को ताकत बनाया और देश को नई दिशा दी। उठाए और विधायी कार्यों में योगदान दिया। उनकी विरासत आज भी उन लाखों नेत्रहीन लोगों के लिए प्रेरणा है जो समाज की मुख्यधारा में शामिल होना चाहते हैं। इस कड़ी में दूसरा नाम बचपन में पोलियो का शिकार हुए एस. जयपाल रेड्डी का है जो जीवनभर बैसाखी के सहारे चलने के बावजूद अपनी बुद्धिमत्ता, वाक्पटुता और राजनीतिक महत्वाकांक्षा के बूते कांग्रेस के प्रमुख नेता के रूप में चार बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा सदस्य रहे। संसद में उनकी तर्कपूर्ण, ओजस्वी और ज्ञानपूर्ण बहसें विपक्ष तक को प्रभावित करती थीं। उनकी विरासत बौद्धिक राजनीति और दिव्यांग प्रतिनिधित्व की मजबूत मिसाल है।
ऐसा ही एक नाम व्हीलचेयर पर बैठकर नए राज्य छत्तीसगढ़ को उड़ान देने वाले पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी का है, जो भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी से राजनीति में आए थे। जब 2000 में छत्तीसगढ़ नया राज्य बना, तो कांग्रेस ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया। आदिवासी बहुल इस राज्य की नींव रखने, विकास योजनाएँ शुरू करने और प्रशासनिक ढांचा खड़ा करने में उनका योगदान अतुलनीय रहा। 2004 में एक सड़क दुर्घटना ने उन्हें कमर से नीचे पूरी तरह पैरालाइज कर दिया। जीवन भर व्हीलचेयर पर रहे, लेकिन राजनीति और जनसेवा नहीं छोड़ी। दुर्घटना के बाद भी चुनाव लड़े, अपनी पार्टी जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ बनाई और हमेशा सक्रिय रहे। जोगी साहब ने साबित किया कि पैरालाइज्ड शरीर राज्य को कभी पैरालाइज नहीं होने देता। वहीं एक हाथ से दिव्यांग होकर राजस्थान की कमान तीन बार संभालने वाले सादगी के पुजारी हरिदेव जोशी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। बचपन में एक संक्रमण के कारण एक हाथ गँवा बैठे जोशी ने अपने हौसले नहीं तोड़े। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने राज्य में विकास कार्यों, सामाजिक न्याय और जन कल्याण की मजबूत नींव रखी। पुलों का निर्माण, विश्वविद्यालयों की स्थापना, सिंचाई परियोजनाएँ और ग्रामीण विकास उनके कार्यकाल की पहचान बने। कोई दो राय नहीं कि उनकी विरासत राजस्थान की राजनीति में सादगी, समर्पण और ट्राइबल क्षेत्रों के विकास की मिसाल है।
महाराष्ट्र की राजनीति के अजेय योद्धा शरद पवार को मुंह का कैंसर हुआ। कीमोथेरेपी और इलाज के कठिन दौर में भी उन्होंने राजनीति नहीं छोड़ी। महाराष्ट्र के चार बार मुख्यमंत्री, केंद्रीय कृषि मंत्री और एनसीपी के संस्थापक के रूप में उन्होंने जो राजनीतिक साम्राज्य खड़ा किया, वह आज भी अटल है। कृषि, सहकारिता और गठबंधन राजनीति में उनका योगदान अतुलनीय है। पवार साहब ने साबित किया कि बीमारी शरीर को तोड़ सकती है, लेकिन इरादों को नहीं। ऐसा ही एक नाम व्हीलचेयर पर बैठकर तमिलनाडु पर आधी सदी राज करने वाले द्रविड़ गाथा के नायक एम. करुणानिधि का है जिन्हे द्रविड़ राजनीति का पुरोधा कहा जाता है। अंतिम वर्षों में स्पाइन सर्जरी के बाद व्हीलचेयर पर रहे। फिर भी पांच बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने। डीएमके के संस्थापक के रूप में उन्होंने द्रविड़ आंदोलन को नई ऊंचाई दी, तमिल भाषा-संस्कृति की रक्षा की और सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी।
इस कड़ी में स्वतंत्र भारत के पहले नेत्रहीन सांसद और दिव्यांग अधिकारों के अग्रदूत साधन गुप्ता का नाम महत्वपूर्ण रूप से जरुरी है. बचपन में चेचक से पूरी तरह नेत्रहीन हो गए गुप्ता ने शिक्षा को अपना हथियार बनाया। कलकत्ता के ब्लाइंड स्कूल से पढ़ाई की, वकील बने और कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े। 1953 में उपचुनाव जीतकर लोकसभा पहुँचे और स्वतंत्र भारत के पहले नेत्रहीन सांसद बने। गुप्ता ने दिव्यांग अधिकारों की लड़ाई लड़ी और नेशनल फेडरेशन ऑफ द ब्लाइंड की स्थापना की। संसद में नेत्रहीनों की शिक्षा, रोजगार और अधिकारों के लिए आवाज उठाई। गुप्ता ने साबित किया कि अंधेरा इरादों को नहीं रोक सकता।
यह दिव्यांग नेता भारतीय राजनीति के जीवंत प्रतीक हैं जिनकी यात्रा साबित करती है कि दिव्यांगता शरीर की सीमा हो सकती है, लेकिन इरादों, सपनों और संकल्प की कोई सीमा नहीं होती। साधन गुप्ता की नेत्रहीनता से लेकर करुणानिधि की व्हीलचेयर तक, हरि देव जोशी के एक हाथ से शरद पवार की कैंसर की लड़ाई तक, इन सभी ने अपनी चुनौतियों को ताकत बनाया और देश को नई दिशा दी।



