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आरएसएस ने दिखाए अपने नुकीले दांत

(आलेख : एम. ए. बेबी, अनुवादक : संजय पराते)

भारतीय संविधान की प्रस्तावना से समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्दों को हटाने की आरएसएस नेतृत्व द्वारा हाल ही में की गई मांग न केवल शब्दार्थ पर हमला है, बल्कि भारतीय गणतंत्र के आधारभूत दृष्टिकोण पर सीधा हमला है। हमारा संविधान भारत के गौरवशाली उपनिवेशवाद विरोधी स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों और आकांक्षाओं का प्रतीक है। यह उन विभिन्न आंदोलनों द्वारा समर्थित मूल्यों को आत्मसात करता है, जिन्होंने हमारी स्वतंत्रता को सुरक्षित करने के लिए हाथ मिलाया था। समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता इसके सबसे बुनियादी सिद्धांतों में से हैं। ये ऐसे मूल्य हैं, जो केवल प्रस्तावना तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि संविधान में हर जगह दिखाई देते हैं और राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों, मौलिक अधिकारों, मौलिक कर्तव्यों आदि में परिलक्षित होते हैं।

आरएसएस महासचिव का यह आह्वान 50 साल पहले घोषित आपातकाल की आलोचना की आड़ में किया गया है, क्योंकि 1976 में आपातकाल के दौरान लागू किए गए 42वें संशोधन के ज़रिए संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्द शामिल किए गए थे। इन सिद्धांतों को बदनाम करने के लिए आपातकाल की आड़ लेना आरएसएस का एक कपटपूर्ण कदम है, खासकर तब, जब उन्होंने खुद उस समय अपने अस्तित्व के लिए इंदिरा गांधी सरकार के साथ सांठगांठ की थी। संविधान को कमज़ोर करने के लिए अब उस काल का उपयोग करना सरासर पाखंड और राजनैतिक अवसरवाद को दर्शाता है। समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता उन बुनियादी विचारों में से हैं, जो भारत को एक आधुनिक लोकतंत्र के रूप में परिभाषित करते हैं।

*सामाजिक और आर्थिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता*

भारतीय संविधान में समाजवाद का उल्लेख सामाजिक और आर्थिक न्याय को सुनिश्चित करने, असमानता के उन्मूलन और कल्याणकारी राज्य के निर्माण के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है। यह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की एक मजबूत धारा का प्रतिबिंब है, जिसने न केवल ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी, बल्कि सभी प्रकार के शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी। कम्युनिस्टों के अलावा, भगत सिंह और उनके साथी स्वतंत्रता संग्राम में इस प्रवृत्ति के सबसे अच्छे उदाहरण हैं।

भारतीय संविधान में निश्चित रूप से समाजवादी समाज बनाने का सपना नहीं है — जिसमें उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व हो और सभी प्रकार के आर्थिक और सामाजिक उत्पीड़न का उन्मूलन हो — जैसा कि सीपीआई (एम) की आकांक्षा है। सीपीआई (एम) एक स्वतंत्र और सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार वाले समाज के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध है, जो अभी तक हासिल नहीं हुआ है। बहरहाल, एक ऐसे समाज में, जिसमें बहुसंख्यक लोग स्वतंत्रता से च्युत और असमान थे, स्वतंत्रता बढ़ाने और असमानताओं को कम करने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए गए हैं।

42वें संशोधन से पहले भी प्रस्तावना में सभी नागरिकों के लिए “सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय” का वादा किया गया था और “स्थिति और अवसर की समानता” की चाहत रखी गई थी। यह इस तथ्य को रेखांकित करता है कि हालांकि 42वें संशोधन ने प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से “समाजवादी” शब्द जोड़ा, लेकिन हमारे संविधान के प्रावधानों में ‘समाजवाद की भावना’ हमेशा मौजूद थी।

भारतीय संविधान द्वारा सुनिश्चित किए गए मौलिक अधिकार उस दिशा में प्रमुख कदम थे। अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता और कानूनों के समान संरक्षण की गारंटी देता है। अनुच्छेद 15 धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है। अनुच्छेद 16 सार्वजनिक रोजगार के मामलों में अवसर की समानता सुनिश्चित करता है। प्रस्तावना और निर्देशक सिद्धांतों के साथ पढ़े गए ये अधिकार शोषण से मुक्त समाज की दृष्टि को सुनिश्चित करते हैं, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा को बरकरार रखा जाता है।

भारतीय संविधान में निहित राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत — भाग IV, अनुच्छेद 36-51 — में समाजवादी _दृष्टिकोण की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति है। अनुच्छेद 38 में कहा गया है कि “राज्य लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए यथासंभव प्रभावी ढंग से एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित और संरक्षित करने का प्रयास करेगा, जिसमें न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को संसूचित करेगा।” अनुच्छेद 39 में आगे कहा गया है कि “राज्य, विशेष रूप से, अपनी नीति को इस तरह से निर्देशित करेगा — (अ) कि नागरिकों, पुरुषों और महिलाओं, का समान रूप से आजीविका के पर्याप्त साधनों पर अधिकार हो ; (ब) कि समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस तरह से वितरित किया जाए कि यह सर्वसामान्य भलाई के लिए सर्वोत्तम प्रयास हो; (स) कि आर्थिक प्रणाली के संचालन से धन और उत्पादन के साधनों का सामान्य हानि के लिए केन्द्रीकरण न हो; (द ) कि पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए समान काम के लिए समान वेतन हो…।”

ये अनुच्छेद भारतीय संविधान में समाहित समाजवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करते हैं। अनुच्छेद 41 में रोजगार प्राप्त करने, शिक्षा प्राप्त करने और सार्वजनिक सहायता प्राप्त करने के अधिकार के बारे में ; अनुच्छेद 42 में काम के न्यायसंगत और मानवीय परिस्थितियों के प्रावधान के बारे में और अनुच्छेद 43 में जीवन निर्वाह मजदूरी और सभ्य जीवन स्तर के बारे में विस्तार से बताया गया है। ये प्रावधान सिर्फ़ आकांक्षापूर्ण नहीं हैं — इन्होंने भारत में भूमि सुधारों और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की स्थापना से लेकर सामाजिक कल्याण योजनाओं की स्थापना तक ऐतिहासिक कानून और न्यायिक व्याख्या को निर्देशित किया है।

हालांकि निर्देशक सिद्धांत केवल सरकार को निर्देश हैं और कानूनी रूप से लागू करने के लिए बाध्य नहीं हैं, लेकिन संविधान सभा में हुई गहन बहस के नतीजे के रूप में वह यहां मौजूद है। उन्हें कानूनी रूप से लागू करने योग्य बनाने की मांग को खारिज करना राज्य के वर्ग चरित्र को दर्शाता है। शासक वर्ग समाजवाद के विचार को पूरी तरह से खारिज नहीं कर सकता था, क्योंकि जनता का एक बड़ा तबका इन विचारों का समर्थन करता था।

*एक बुनियादी सिद्धांत*

भारतीय संविधान में उल्लेखित धर्मनिरपेक्षता केवल धार्मिक तटस्थता के अभिप्राय में नहीं है, बल्कि यह सकारात्मक आश्वासन है कि राज्य सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करेगा, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करेगा और यह सुनिश्चित करेगा कि किसी भी नागरिक को उसकी आस्था के आधार पर भेदभाव का सामना न करना पड़े। प्रस्तावना के मूल पाठ में, 1976 में “धर्मनिरपेक्ष” शब्द को जोड़ने से पहले ही, “विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और पूजा की स्वतंत्रता” और “व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित करने वाली बंधुता …” का वादा किया गया था।

भाग III – मौलिक अधिकार – अनुच्छेद 25 से 28 धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करते हैं और यह भारतीय गणराज्य की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति को फिर से रेखांकित करता है। अनुच्छेद 25 सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने के अधिकार की गारंटी देता है। अनुच्छेद 26 प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय को अपने धार्मिक मामलों का प्रबंधन करने की स्वतंत्रता और अधिकार प्रदान करता है। अनुच्छेद 27 किसी भी व्यक्ति को किसी विशेष धर्म के प्रचार के लिए कर देने के लिए बाध्य करने पर रोक लगाता है। अनुच्छेद 28 पूरी तरह से राज्य के कोष से संचालित शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा का निषेध करता है। अनुच्छेद 29 और 30 अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की रक्षा करते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि वे अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को संरक्षित कर सकें। यह राज्य द्वारा संचालित या राज्य के कोष से सहायता प्राप्त किसी भी शैक्षणिक संस्थान में केवल धर्म आदि के आधार पर प्रवेश से इंकार करने पर रोक लगाता है और अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रशासन करने की अनुमति देता है।

ये अनुच्छेद यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्य न तो किसी धर्म को पहचानेगा और न ही उसे विशेषाधिकार देगा और हर नागरिक, चाहे वह किसी भी धर्म का हो, समान अधिकार और सुरक्षा का आनंद लेगा। इसके अलावा, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में कमजोर तबकों के लिए शैक्षणिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने की आवश्यकता प्रतिपादित की गई है और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी सुरक्षा का निर्देश दिया गया है, जैसा कि अनुच्छेद 46 में निर्दिष्ट किया गया है। कई आधिकारिक अध्ययनों — जिसमें सच्चर समिति और रंगनाथी मिश्रा आयोग शामिल हैं — ने साबित किया है कि भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों के विभिन्न वर्ग वास्तव में समाज के बाकी हिस्सों की तुलना में कमज़ोर हैं। यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस बात की बार-बार पुष्टि की है कि धर्मनिरपेक्षता संविधान के ‘मूल ढांचे’ का हिस्सा है। न्यायालय ने माना है कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है — राज्य द्वारा सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार और किसी भी राज्य-धर्म का अभाव।

यह ध्यान देने योग्य है कि मूल संरचना सिद्धांत को 1973 में केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले में पेश किया गया था। यह सिद्धांत मानता है कि भारतीय संसद संविधान में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन वह इसके मूल या बुनियादी ढांचे को बदल या नष्ट नहीं कर सकती, यानी संविधान का मूल ढांचा अपरिवर्तनीय है। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, 42वां संशोधन जिसने संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्दों को समाहित किया, इस ऐतिहासिक फैसले के तीन साल बाद 1976 में लागू किया गया था। फिर भी, ये संशोधन किए जा सकते थे — खासकर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले की पृष्ठभूमि में — क्योंकि, ये भारतीय संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करते थे।

भारत के विचार से अविभाज्य

यह दावा करना एक भ्रांति है कि हमारे संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता 1970 के दशक से केवल ‘जोड़े गए’ या ‘थोपे गए’ हैं। संविधान सभा का उद्देश्य प्रस्ताव, संविधान सभा की बहसें और भारत के गौरवशाली उपनिवेशवाद-विरोधी स्वतंत्रता संग्राम का जीवंत अनुभव सभी इस बात की गवाही देते हैं कि ये मूल्य गणतंत्र के संस्थापकों की दृष्टि के केंद्र में थे। सामाजिक और आर्थिक न्याय, समानता और बंधुत्व के प्रति भारतीय संविधान की प्रतिबद्धता स्वाभाविक रूप से समाजवादी है। धार्मिक स्वतंत्रता, गैर-भेदभाव और अल्पसंख्यक अधिकारों की इसकी गारंटी स्वाभाविक रूप से धर्मनिरपेक्ष है। भले ही प्रस्तावना से समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द हटा दिए जाएं, लेकिन संविधान का मूल दर्शन, संरचना और प्रावधान अपने सार में अपरिवर्तित रहेंगे।

संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. बी. आर. अंबेडकर का 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में दिया गया अंतिम भाषण गहन अंतर्दृष्टि प्रदान करता है, जो इस तर्क को मजबूत करता है कि स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के विचार – जो समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों की नींव बनाते हैं – भारतीय संविधान की भावना और संरचना में अंतर्निहित हैं। उन्होंने कहा, “हमें सिर्फ़ राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना चाहिए। राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता, जब तक कि उसके आधार में सामाजिक लोकतंत्र न हो। सामाजिक लोकतंत्र का क्या मतलब है? इसका मतलब है एक ऐसी जीवन शैली, जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में मान्यता देती है… स्वतंत्रता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता, समानता को स्वतंत्रता से अलग नहीं किया जा सकता। न ही स्वतंत्रता और समानता को बंधुत्व से अलग किया जा सकता है। समानता के बिन स्वतंत्रता, कुछ लोगों की बहुतों पर सर्वोच्चता पैदा करेगी। बंधुत्व के बिना स्वतंत्रता, कुछ लोगों की बहुतों पर सर्वोच्चता पैदा करेगी। बंधुत्व के बिना, स्वतंत्रता और समानता चीजों का स्वाभाविक क्रम नहीं बन सकती।”

उन्होंने आगे कहा, “सामाजिक स्तर पर, भारत में हमारे पास एक ऐसा समाज है, जो क्रमिक असमानता के सिद्धांत पर आधारित है, जिसका अर्थ है कुछ लोगों के लिए उत्थान और दूसरों के लिए पतन। आर्थिक स्तर पर, हमारे पास एक ऐसा समाज है, जिसमें कुछ लोगों के पास अपार संपत्ति है, जबकि कई लोग घोर गरीबी में रहते हैं। 26 जनवरी 1950 को, हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे। हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में, हम अपने सामाजिक और आर्थिक ढांचे के कारण, एक व्यक्ति, एक मूल्य के सिद्धांत को नकारते रहेंगे। हम कब तक विरोधाभासों का यह जीवन जीते रहेंगे? हम कब तक अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? अगर हम इसे लंबे समय तक नकारते रहेंगे, तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डालकर ही ऐसा करेंगे। हमें इस विरोधाभास को जल्द से जल्द दूर करना होगा, अन्यथा असमानता से पीड़ित लोग राजनीतिक लोकतंत्र की संरचना को नष्ट कर देंगे, जिसे इस सभा ने अभी तक कड़ी मेहनत से बनाया है।” अंबेडकर का भाषण इस बात की जोरदार पुष्टि करता है कि भारतीय संविधान सामाजिक और आर्थिक न्याय को सुरक्षित करने के लिए बनाया गया था — ये सिद्धांत ही समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता का सार हैं। उनके शब्द इन आधारभूत मूल्यों को कमजोर करने के किसी भी प्रयास के खिलाफ एक मार्गदर्शक प्रकाश की तरह हैं।

*आरएसएस का पर्दाफाश*

आरएसएस महासचिव दत्तात्रेय होसबोले की भारतीय संविधान की प्रस्तावना से समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को हटाने की मांग महज ऐतिहासिक सटीकता के लिए एक मासूम आह्वान नहीं है, बल्कि भारतीय गणतंत्र की नींव को कमजोर करने की एक सोची-समझी चाल है। उनका तर्क कि समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्द डॉ. अंबेडकर के मूल मसौदे का हिस्सा नहीं थे, इस तथ्य की अनदेखी करता है कि समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के मूल सिद्धांत पूरे संविधान में परिलक्षित होते हैं, और 42वें संशोधन ने केवल वही स्पष्ट किया है, जो हमेशा इसके पाठ और भावना में निहित था। वास्तव में, धर्मनिरपेक्ष शब्द 42वें संशोधन से पहले भी अनुच्छेद 25(2)(ए) में मौजूद है। अनुच्छेद 38 का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है, जो राज्य को लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए एक सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित करने का निर्देश देता है, जो समाजवाद की ओर झुकाव को दर्शाता है।

आरएसएस ने हमेशा असमानता और पितृसत्ता को मजबूत करने और भारत की राष्ट्रीय पहचान को धर्मतंत्र के आधार पर फिर से परिभाषित करने की कोशिश की है। प्रस्तावना से समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को मिटाने का उनका प्रयास वास्तव में इतिहास को फिर से लिखने, हमारे उपनिवेशवाद विरोधी स्वतंत्रता संग्राम की विरासत को अमान्य करने और एक धर्मतंत्रीय, बहुसंख्यकवादी राज्य का मार्ग प्रशस्त करने का प्रयास है। यह भारत के बहुलतावादी और लोकतांत्रिक समाज के विचार के लिए एक खतरा है। भारतीय संविधान सभी के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को सुरक्षित करने के लिए बनाया गया है। समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता दो महत्वपूर्ण स्तंभ हैं, जिन पर भारतीय गणतंत्र की इमारत खड़ी है।

उन मूल्यों पर हमला करके, आरएसएस की असली मंशा उजागर हो गई है — यह हमारे संविधान द्वारा परिकल्पित और गारंटीकृत समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य को नष्ट करने से कम नहीं है। यह मांग भारतीय संविधान को मनुस्मृति से बदलने, भारत के धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य को नष्ट करने और हिंदू राष्ट्र बनाने के आरएसएस के लंबे समय से चले आ रहे एजेंडे को उजागर करती है। वे सभी लोग, जो स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों को संजोते हैं — जो ऐसा संघर्ष था, जिसका आरएसएस हिस्सा नहीं था और यहां तक कि उसने भारत के युवाओं से इसका हिस्सा बनकर अपनी ऊर्जा बर्बाद न करने का आह्वान भी किया था — उन्हें संविधान की रक्षा में एकजुट होना चाहिए और भारत को हिंदू राष्ट्र में बदलने के किसी भी प्रयास का विरोध करना चाहिए।

(लेखक माकपा के महासचिव हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।)

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