पाणिग्रहण, बिना पुरोहित के ? संभव है, कहा सुप्रीम कोर्ट ने !
के. विक्रम राव
सुप्रीम कोर्ट ने कल (28 जुलाई 2023) एक फैसले में 2001 के अपने पुराने निर्णय को दुहरा दिया कि पाणिग्रहण संस्कार बिना पुरोहित के संपन्न कराया जा सकता है। यहां तक कि वकील साहब भी अपने कक्ष में ही यह सुकृत्य आयोजित कर सकते हैं। आधार यही है कि युगल की सुरक्षा खतरे में न पड़े। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय ने मद्रास हाईकोर्ट के फैसले (बालकृष्ण पांडयन-2014) को पलट दिया। उच्च न्यायालय का मानना था कि विवाह एक संस्कार है अतः विधिपूर्वक किया जाए। मद्रास हाईकोर्ट ने लावर्सन बनाम पुलिस अधीक्षक और अन्य मामले में एक वकील द्वारा जारी किए गए स्व-विवाह प्रणाली के आधार पर जारी शादी के प्रमाण पत्र पर भरोसा करने से इनकार कर दिया था।
यहां मानव संबंधों के परिवेश में एक मूलभूत मसला पेश आता है। विवाह कोई वाणिज्यीय विषय तो है नहीं। यह एक पुरातन, धार्मिक परिपाटी है, प्रथा है। एक जागरूक सेक्युलर नागरिक के नाते मेरी राय यह है कि पारंपरिक मामलों में न्यायालय को अत्यधिक संवेदनशील होना चाहिए। उदाहरण है शाह बानो वाला प्रकरण। वह अत्यधिक भावनात्मक था। क्या हुआ अंततः ? जनप्रतिनिधित्व के नाम पर, वोट बैंक के दबाव में, दोनों सदनों ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को निरस्त कर दिया था। नतीजन परित्यक्ता मुस्लिम महिला को मुआवजा से वंचित कर दिया गया। हर शातिर शौहर को शह मिल गई। यह अमानवीय था।
मगर यहां विचारणीय विषय बड़ा सीधा और सरल है। सीमित भी। क्या शादी की रस्म बिना पुरोहित के अदा की जा सकती है ? उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार आपसी सहमति वाले विवाह (सामान्यत: प्रेम विवाह) के लिए सार्वजनिक अनुष्ठान या घोषणा की जरूरत नहीं है। कोई भी जोड़ा एक-दूसरे के गले में माला डालकर या अंगूठी पहनाने के साधारण समारोह में वकीलों के चैंबर में भी शादी कर सकता है। जस्टिस एस. रवींद्र भट और जस्टिस अरविंद कुमार की पीठ ने किसी व्यक्ति के जीवनसाथी चुनने के मौलिक अधिकार को बरकरार रखा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा : “विवाह के इच्छुक जोड़े रिश्तेदारों, दोस्तों या अन्य व्यक्तियों की उपस्थिति में विवाह कर सकते हैं। विवाह में शामिल दोनों पक्ष को उनके समझने योग्य भाषा में यह घोषणा करनी चाहिए कि वे एक-दूसरे को पति या पत्नी मानते हैं।” मगर मौलिक मुद्दा यही है कि क्या बिना रस्म अदायगी के, बिना अनुष्ठान के, बिना सभ्यता-संस्कृति-जन्य आचार-व्यवहार के क्या पति-पत्नी हो सकते हैं ? संसद ने इसपर कोई अधिनियम नहीं रचा है। अतः सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि बिना पुरोहित के विवाह संभव है। यह एक अत्यधिक विवादग्रस्त और अस्वीकार्य कदम होगा।
उदाहरणार्थ इस्लाम के उदय के पूर्व अरब जगत में मनमाने रीति रिवाज होते थे। कोई पाबंदी, आचरण और प्रतिबद्धता नहीं थी। पैगंबर ने आकर समाज को सम्य बनाया। मुसलमानों के लिए विवाह अल्लाह द्वारा पारिवारिक जीवन और पूरे समाज के लिए एक आधार प्रदान करने के लिए बनाया गया था। इस्लाम में विवाह को प्रोत्साहित किया जाता है। पारिवारिक जीवन को “आशीर्वाद” और स्थिरता का स्रोत माना जाता है। एक स्रोत में पांच कुरान की आयतें सूचीबद्ध हैं (प्र. 24:32 , 25:74 , 40:8 , 30:21 , 5:5 ) जो “अनैतिकता को हतोत्साहित” करने के लिए विवाह को प्रोत्साहित करती हैं। महिलाओं को यह भी याद दिलाया जाता है कि अगर पति अपनी जिम्मेदारियां पूरी नहीं कर रहा है तो तलाक मांगने में उन पर कोई कलंक नहीं है। कुरान इस बात पर फिर से जोर देता है कि महिला के लिए न्याय में भावनात्मक समर्थन शामिल है। पुरुषों को बताता है कि महिलाओं को दिए गए महर या दुल्हन के उपहार को तब तक वापस नहीं लिया जा सकता जब तक कि उन्हें यौन अनैतिकता का दोषी नहीं पाया जाता है।
अतः सुप्रीम कोर्ट के कलवाले निर्णय की विवेचना करें तो यही आशंका जन्मती है कि क्या बिना पादरी, यहूदी, रब्बी और काजी के शादी हो सकती है ? तो इस संपूर्ण प्रकरण का सम्यक विश्लेषण कर लें। शास्त्रों के अनुसार विवाह मात्र कोई शारीरिक या सामाजिक अनुबन्ध नहीं हैं। दाम्पत्य एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का रूप है। इसलिए कहा गया है ‘धन्यो गृहस्थाश्रमः’। अब हिंदु विवाह के संदर्भ में इतनी सावधानी बरतनी पड़ेगी कि समाज में फिर वह प्राचीन परिस्थिति न उत्पन्न हो जाए। मसलन कई युग बीते, पांडवों के दौर की बात है। महाभारत में विवाह के उद्गम प्रसंग है। तब श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह की मर्यादा स्थापित की। पुराने जमाने में विवाह की कोई प्रथा न थी, स्त्री पुरुषों को यौन संबंध करने की पूरी स्वतंत्रता थी। महाभारत में एक कथा मिलती हैं। एक बार उद्दालक ऋषि के पुत्र श्वेतकेतु अपने आश्रम में बैठे हुए थे। तभी वहां एक अन्य ऋषि आए और उनकी माता को उठाकर ले गए। ये सब देखकर श्वेत ऋषि को बहुत गुस्सा आया। पिता ने उन्हें समझाया की प्राचीन काल से यहीं नियम चलता आ रहा है। उन्होंने कहा कि संसार में सभी महिलाएं इसी नियम के अधीन है। श्वेतकेतु ने इसका विरोध करते हुए कहा कि यह तो पाशविक प्रवृत्ति है। इसके बाद उन्होंने विवाह का नियम बनाया। उन्होंने कहा कि जो स्त्री विवाह बंधन में बंधने के बाद दूसरे पुरुष के पास जाती है तो उन्हें गर्भ हत्या करने जितना पाप लगेगा। इसके अलावा जो पुरुष अपनी पत्नी को छोड़कर किसी दूसरी महिला के पास जाएगा उसे भी इस पाप का परिणाम भोगना होगा। उन्होंने बताया कि विवाह बंधन के बाद स्त्री और पुरुष अपनी गृहस्थी को मिलकर चलाएंगे। उन्होने ही यह मर्यादा तय कर दी कि पति के रहते हुए कोई स्त्री उसकी आज्ञा के विरुद्ध अन्य पुरुष के साथ संबंध नहीं बना सकती है।
यह पुरातन नियम-कानून आधुनिक भी हैं। इसे कोई भी अदालत अमान्य नहीं कर सकती। बस एक आग्रह यहां मानना होगा। सभी मतावलंबियों को अंततः स्वयं पहल करनी होगी कि निजी कानूनों में पूरी सतर्कता बरतें। ऐसा अमानवीय अवसर न आने दें कि अदालत को संस्कार के नाम पर हस्तक्षेप करना पड़े। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने कल किया।