फिर न आए कभी वैसी भयावह सुबह : 26 जून 1975 वाली !
के. विक्रम राव
आज ही की वह बृहस्पतिवार, 26 जून 1975, माह श्रावण की तृतीया। पखवाड़ा था कालिमाभरा कृष्णपक्ष वाला। बीती रात भी बिना चांदनी के ही थी। बड़ी गमगीन। उसके चंद घंटे पूर्व 70 साल के अलसाते बुड्ढे मियां फखरुद्दीन अली अहमद ने पाया कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी रात ढले अचानक उनसे मिलने राष्ट्रपति भवन आ गईं। एक परिपत्र का नमूना लाई थीं। आपातकाल की घोषणावाली। इसके तहत समस्त नागरिक अधिकार निरस्त करने, प्रेस पर जबरदस्त सेंशरशिप थोपने, सारे आलोचक-विरोधियों को कैद करने। अर्थात लोकतंत्र का वध करने वाली।
भारत का यह पांचवा राष्ट्रपति देश के तीसरी प्रधानमंत्री की इस राय को गले के नीचे उतार न पाया। पूछा : “काबीना की सहमति ले ली ?” इंदिरा गांधी का बड़ा संक्षिप्त जवाब था : “समय नहीं था।” संविधान के अनुसार बिना मंत्रिमंडल के अनुमोदन के अध्यादेश जारी करना अवैध है। यह जानते थे मियां फखरुद्दीन जो कैंब्रिज विश्वविद्यालय से कानून में शिक्षित थे। लाहौर (तब अविभाजित भारत) के हाईकोर्ट में (1928) वकालत भी कर चुके थे। अपने गृहराज्य असम में सरकारी महाधिवक्ता रहे थे। बस हिम्मत बटोरने की दरकार थी। इंदिरा गांधी को उस आधी रात मियां जी सिर्फ “ना” कह देते। फिर सहमे राष्ट्रपति ने अपने सचिव के. बालचंद्रन, आई.ए.एस., को आधी रात को बुलाया। दस मिनट में पैजामा पहने बालचन्द्रन हाजिर हुए। उन्हें प्रधानमंत्री का गोपनीय पत्र थमाया। इसमें लिखा था कि भारत में आंतरिक विद्रोह उभरा है। अतः संविधान की धारा 352 (1) के तहत आपातकाल घोषित किया जाता है। बालाचंद्रन ने राष्ट्रपति को राय दी कि आपातकाल का ऐलान कानूनन नहीं किया जा सकता है। फिर फखरुद्दीन अहमद ने संविधान के प्रति मंगवाई और पढ़ी। सचिव ने समझाया कि राष्ट्रपति की निजी संतुष्टि पर्याप्त नही है। मंत्री परिषद ही स्वीकृति अनिवार्य है। तभी इंदिरा गांधी के सचिव आरके धवन राष्ट्रपति भवन में आए। वे आपातकाल की घोषणा का मसविदा लाए थे। फखरुद्दीन अली अहमद ने दस्तखत कर दिए। फिर नींद की गोली खाकर सो गए। देश की आजादी के सूरज को उगने के पहले ही सुला दिया। गुलामी फिर आ गई। अंग्रेजों की हटी थी। अब इंदिरा परिवार की। संजय गांधी बेताज का बादशाह बन गया था।
आज ही की सुबह थी, 48 साल पूर्व। तब मैं बरोडा (अब वड़ोदरा) में “दि टाइम्स ऑफ इंडिया” का दक्षिण गुजरात का ब्यूरो प्रमुख था। बच्चों को स्कूल छोड़कर अपने स्कूटर से दांडिया बाजार आया। वहां यूएनआई का कार्यालय था। टेलिप्रिंटर ऑपरेटर मनु सोलंकी ने अध्यादेश की खबर वाली पूरी कापी दिखाई।
तभी पहला कर्तव्य मैंने समझा कि इस अवांछित प्रेस सेंशरशिप के सरकारी निर्णय की भर्त्सना की जाए। मैं राष्ट्रीय उपाध्यक्ष था इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) का। कई अखबारों में यह छपा भी। मेरे बयान के तत्काल बाद फेडरेशन के कम्युनिस्ट तथा कांग्रेसी पत्रकारों ने अपने को अलग कर लिया। सेंशरशिप को उनका मौन समर्थन था। मगर मामला पूरा भारत गुलामी से बंध गया। गूंगा हो गया। आंखें और कान ठीक थे। नतीजा मार्च, 1977 के चुनावों में आ गया। रायबरेली की जनता ने तानाशाह को जबरदस्त शिकस्त दी। लेकिन उन सबके पूर्व आपातकाल में दिखा इंदिरा शासन का नृंशस बर्ताव था। हमें डायनामाइट षड्यंत्र केस में कैद रखा गया। मुझे पांच जेलों में रखा गया था। हम 27 अभियुक्त बनाए गए। जॉर्ज फर्नांडिस की कोलकाता में गिरफ्तारी के पूर्व तक मैं अभियुक्त नंबर एक था। फिर दो नंबर पर आ गया। दो महारथी भी थे। भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष अरबपति, उद्योगपति सांसद वीरेन शाह जो बाद में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल बने। प्रभुदास पटवारी थे, सर्वोदय और महानिषेध आंदोलन के अगुवा। बाद में वे तमिलनाडु के राज्यपाल बने। पहला काम दोबारा प्रधानमंत्री बनते ही इंदिरा गांधी ने किया (1980 में) प्रभुदासजी को बर्खास्त कर दिया।
पुलिसिया आकलन में बड़ौदा डाइनामाईट केस के हम सभी अभियुक्तों का इन्दिरा गाँधी के सर्वाधिक खतरनाक शत्रुओं में शुमार था। हालांकि तमाम सच्चे झूठे प्रयासों के बावजूद सी.बी.आई. कोई प्रमाण नहीं जुटा पाई थी कि हम विद्रोहियों ने किसी प्रकार की प्राण-हानि पहुँचाई हो। बड़ौदा सेन्ट्रल जेल में तन्हा कोठरी में बेड़ियों के साथ दो ताले लगाकर मुझे बन्द किया जाता था। इन नब्बे वर्ग फिटवाली कोठरियों का निर्माण महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने 1876 में फांसी के सजायाफ्ता अपराधियों के लिए किया था। कुछ महीनों बाद हमें बड़ौदा से दिल्ली के तिहाड़ जेल में ले जाया गया। वहाँ नौ राज्यों में गिरफ्तार किये गये डायनामाइट केस के अन्य अभियुक्तों को भी साथ रखा गया।